ज्ञानेश्वरी पृ. 459

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

जो सदा यही कहता रहता है कि मैं पीब के गड्ढे में पड़ा था, मूत्र द्वार से मैं बाहर निकला हूँ और हाय, हाय! मैंने स्तन पर का पसीना चाटा है और उन्हीं सब बातों का विचार करके जिसे जीवन से सदा घृणा बनी रहती है और जो यह निश्चय कर लेता है कि अब मैं ऐसा काम कभी नहीं करूँगा जिससे मुझे दुबारा जन्म लेना पड़े, जैसे हारा हुआ धन फिर से पाने के लिये जुआरी फिर दाँव लगाने के लिये तैयार हो जाता है अथवा पिता के वैर का बदला चुकाने के लिये पुत्र निरन्तर अवसर की तलाश करता रहता है, अथवा मारने से चिढ़कर जैसे कोई क्रोधाविष्ट होकर मारने वाले का अनुगमन करता रहता है और उससे उस मार का बदला चुकाना चाहता है, वैसे ही जो हाथ धोकर जन्म-बन्धन तोड़ने के पीछे पड़ा रहता है अथवा जन्म लेने की लज्जा जिसके मन में सदा वैसे ही खटकती रहती है, जैसे किसी सम्मानित व्यक्ति के मन में मान-हानि खटकती रहती है अथवा हे पाण्डुसुत! जब किसी तैराक से यह कह दिया जाता है कि आगे बहुत गहरा गड्ढा है, उस समय वह तैराक जैसे तट पर ही खूब अच्छी तरह अपनी कमर कस लेता है अथवा जैसे बुद्धिमान् व्यक्ति युद्धभूमि में जाकर खड़े होने से पहले ही अपने होश-हवास ठिकाने कर लेता है अथवा चोट लगने से पूर्व ही जैसे ढाल आगे करनी पड़ती है अथवा जैसे यह पता लगने पर कि प्रवास में कल हम जहाँ चलकर ठहरेंगे, वहाँ कोई भारी आपत्ति आने की सम्भावना है, व्यक्ति एक दिन पूर्व से ही सावधान हो जाता है या प्राणान्त होने से पूर्व ही जैसे औषधि के लिये दौड़-धूप करनी पड़ती है, इसी प्रकार जो इन सब बातों को ध्यान में रखकर तत्काल ही सावधान हो जाता है कि मृत्यु चाहे आज हो और चाहे कल के अन्त में हो, पर वह होगी अवश्य और यदि इस प्रकार व्यक्ति पहले से ही सावधान न हो तो उसकी दशा उस व्यक्ति की भाँति हो जाती है, जो जलते हुए घर में पड़ा रह जाता है और जिसे फिर उस समय कुआँ खोदने का अवसर ही नहीं मिलता और वह भयभीत होकर उसी तरह जहाँ-का-तहाँ रह जाता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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