ज्ञानेश्वरी पृ. 440

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

हे किरीटी! जो कभी अपने हाथ में छड़ी भी न रखता हो, उसके बारे में यह कहने की जरूरत ही नहीं है कि वह शस्त्रों को कभी छूता भी नहीं। वह कमल अथवा फूलों की माला को उछालने के खेल भी नहीं खेलता, क्योंकि उसे यह भय बना रहता है कि कहीं मेरे हाथ का कमल अथवा फूलों की माला किसी के ऊपर न जा गिरे और उसे चोट न लग जाय। वह रोम दबने के भय से अपने अंग पर हाथ नहीं फेरता तथा नखों को कष्ट से बचाने के लिये उन्हें कटवाता भी नहीं। यहाँ तक कि उसके नाखून बढ़ते-बढ़ते उसके अँगुलियों पर कुण्डल का स्वरूप धारण कर लेते हैं। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति के विषय में कार्यों का सिर्फ अभाव ही रहता है। परन्तु किसी कार्य को करने का अवसर आने पर वह ऊपर बतलाये हुए प्रकार से ही कार्य करने का अभ्यस्त होता है। उसके हाथ किसी को अभय प्रदान करने के लिये ही उठते हैं, आश्रय देने के लिये ही आगे बढ़ते हैं और आर्तजनों को कोमलता पूर्वक स्पर्श करने के लिये ही हिलते हैं, ये समस्त काम उसके द्वारा एकमात्र लाचारी की हालत में ही होते हैं। पर आर्तजनों की पीड़ा दूर करने में उसकी जो शीतलता दृष्टिगत होती है, वह शीतलता चन्द्र-किरणों में भी नहीं दीखती।

वे हाथ पशु पर इतने प्रेम से फेरे जाते हैं कि उनका स्पर्श मानो मलय समीर के स्पर्श की भाँति होता है। वे हाथ सर्वदा मुक्त रहते हैं और यद्यपि चन्दन की शीतल शाखाओं की भाँति उनमें कभी फल तो नहीं आते, पर फिर भी वे हाथ कभी निष्फल नहीं होते; क्योंकि उनकी शीतलता अथवा प्रेमार्द्रता अक्षय तथा सर्वव्यापी होती है। अब यह विस्तार रहने दो। हे पार्थ, तुम यही समझ लो कि उसके करतल साधुजनों के शीतल शील के समान होते हैं। अब इस प्रकार के व्यक्ति के मन का ही विवेचन होना चाहिये। पर अब तक मैंने इस प्रकार के व्यक्ति के जिस आचार के सम्बन्ध में वर्णन किया है, वह आचार क्या उसके मन का नहीं है? शाखाएँ क्या वृक्ष की ही नहीं होती हैं? बिना जल के समुद्र कैसे हो सकता है? क्या तेज और तेजस्वी दोनों एक-दूसरे से पृथक् होते हैं? क्या अवयव और अवयवी अथवा जल और रस कभी पृथक् रह सकते हैं? इसीलिये अब तक मैंने ऐसे व्यक्ति के बाह्य आचार के बारे में जो बातें बतलायी हैं, उन्हें तुम इन अवयवों से युक्त उस मन की ही बातें समझो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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