ज्ञानेश्वरी पृ. 423

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग


तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ॥3॥

अब तुम यह ध्यानपूर्वक सुनो कि इस शरीर को क्षेत्र कहने का उद्देश्य क्या है। इसे क्षेत्र क्यों कहते हैं, यह कैसे और कहाँ उत्पन्न होता है और किन-किन विकारों से इसकी वृद्धि होती है? यह क्षेत्र यही साढ़े तीन हाथ का छोटा-सा ही है, अथवा बड़ा है तो कितना बड़ा है और किस आकार का है? यह उपजाऊ है अथवा अनुपजाऊ? इसका स्वामी कौन है? इत्यादि जितने प्रश्न हैं, अब मैं उन सबका सम्यक् वर्णन करता हूँ, सुनो।

हे पार्थ! इन्हीं प्रश्नों की मीमांसा करने के लिये वेद बड़बड़ाते रहते हैं और तर्क का प्रलाप भारी रहता है। इन्हीं प्रश्नों का समाधान करते-करते षट्दर्शनों का अवसान हो गया, तो भी आज तक वे एकमत नहीं हो सके। इन्हीं सब चीजों को लेकर शास्त्र परस्पर लड़ते रहते हैं और सारे जगत् में इन्हीं को लेकर वाद-विवाद होते रहते हैं। इन विषयों में किसी की बात किसी से मेल नहीं खाती, कोई किसी का मुँह नहीं देखता, मतों में परस्पर पटरी नहीं बैठती, ऊहापोह की दुर्दशा हो गयी है और चतुर्दिक सिर्फ अव्यवस्था फैली हुई है। अभी तक किसी को यह ज्ञात ही नहीं हुआ कि इस क्षेत्र का स्वामित्व किसके हाथ है। किन्तु अहंकार का इतना प्राबल्य है कि घर-घर इसी से सम्बन्धित बवाल खड़े रहते हैं। नास्तिकों का मुकाबला करने के लिये वेदों ने बड़े-बड़े आडम्बर रचकर खड़े किये हैं तथा पाखण्डियों ने वेद-विरुद्ध बहु-भाषण शुरू कर दिये हैं। वे कहते हैं कि इन वेदों का कोई आधार ही नहीं है, ये झूठे ही शब्दाडम्बर फैलाते हैं। यदि हमारी बात झूठी हो तो इसे साबित करने के लिये हमने यह प्रतिज्ञा का बीड़ा रखा है। यदि हिम्मत हो तो इसे उठा लो। जरा हम भी देखें। बहुतों ने पाखण्ड में प्रवेश करके वस्त्रों का त्याग करके लुटिया डुबोयी है, पर उनके वितण्डावाद अपने-आप उन्हीं को परास्त कर देते हैं। मृत्यु की सामर्थ्य देखकर योगी इस भय से कुछ और आगे कदम बढ़ाये कि मृत्यु के पदार्पण करने पर यह देह-क्षेत्र बेकार हो जायगा। मृत्यु से घबराने वाले वे योगी मनुष्यों की आबादी से दूर एकान्त स्थान में रहने लगे और उन्होंने यम-नियमों के बखेड़े अपने संग चिपका लिये। इसी देह क्षेत्र की विवेचना करने के लिये शिव ने अपने लोक का परित्याग किया तथा चतुर्दिक् उपाधियाँ देखकर एकमात्र श्मशान-भूमि को ही अपना निवास स्थान बना लिया। महेश की प्रतिज्ञा इतनी प्रबल थी कि केवल दिगम्बर होकर मदन को इसलिये जला डाला कि वह लोगों को लुभाने वाला है। सामर्थ्य बढ़ाने के लिये सत्य लोक के नाम ब्रह्मदेव को चार मुख प्राप्त हुए, पर फिर भी इसका उन्हें ज्ञान नहीं हुआ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (10-26)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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