श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । जो इन विषयों के अधीन नहीं होते उन्हें सुख-दुःख स्पर्श भी नहीं करते और न ही उन्हें गर्भवास यातना ही झेलनी पड़ती है। हे पार्थ! जो मनुष्य इन्द्रिय सुखों के चक्कर में नहीं पड़ता, उसे सर्वथा नित्यरूप ही जानना चाहिये।[1] नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:। हे अर्जुन! अब तुम मेरी एक बात और सुनो जिसका अनुभव सिर्फ विचारवान् लोगों को ही होता है। इस मायायुक्त संसार में एक सर्वव्यापी गूढ़ तत्त्व है जो चैतन्य है; और सभी तत्त्वज्ञानी यही स्वीकार करते हैं कि वह चैतन्य सद्वस्तु है। एक ही में मिले हुए दूध और पानी में से जैसे राजहंस दूध को पानी से अलग कर लेता है अथवा जैसे कुशल कारीगर सोने को आग में तपाकर उसका अशुद्ध अंश जला डालते हैं और उसमें से शुद्ध सोना अलग कर लेते हैं अथवा जैसे बड़ी चतुराई से दही को मथने पर अन्ततः नवनीत दृष्टिगोचर होने लगता है या जैसे एक में मिले हुए अनाज और भूसे को ओसाने से अनाज तो बचा रहता है और उसका निकृष्ट अंश जो भूसा रहता है, वह उड़ जाता है; वैसे ही विचार करते-करते एक-न-एक दिन प्रपंच का सहजतः विनाश हो जाता है और तब ज्ञानियों के लिये एकमात्र तत्त्व ही शेष रहता है। इसीलिये वह नाशवान् पदार्थों के विषय में कभी आस्तिक बुद्धि नहीं रखता; क्योंकि वह यह भली-भाँति जान चुका होता है कि जो कुछ शाश्वत अर्थात् ‘नित्य’ है वही ‘सत्’ है और जो कुछ नाशवान् अर्थात् ‘अनित्य’ है वही ‘असत्’ है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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