ज्ञानेश्वरी पृ. 409

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-12
भक्ति योग


अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥9॥

यदि तुम मन और बुद्धिसहित अपना चित्त पूर्णरूप से मेरे हाथ नहीं सौंप सकते, तो तुम ऐसा करो कि अहर्निश के अष्ट प्रहरों में से कम-से-कम पलभर के लिये ही मन और बुद्धिसमेत अपना चित्त मुझे अर्पण करते चलो। फिर जिन क्षणों में मेरा सुख भोगने को प्राप्त हो सके, कम-से-कम उन क्षणों में तुम्हारे चित्त में विषयों के प्रति वितृष्णा उत्पन्न होगी और तब जैसे शरद् काल निकल जाने पर नदियाँ धीरे-धीरे उतरने (सूखने) लगती हैं, वैसे ही तुम्हारा चित्त भी शनैः शनैः प्रपंचों के वेग से बाहर निकलने लगेगा। फिर ऐसा होने पर जैसे पूर्णिमा से चन्द्रबिम्ब दिनोदिन क्षीण होते-होते अन्ततः अमावस्या के दिन एकदम क्षीण हो जाता है, वैसे ही विषय-भोगों से बाहर निकलते-निकलते और मेरे स्वरूप में प्रविष्ट होते-होते, हे सुभट! तुम्हारा चित्त शनैः शनैः मद्रूप हो जायगा। जिसे अभ्यासयोग के नाम से पुकारते हैं, वह यही है। इस जगत् में कोई ऐसी चीज नहीं है जो इस अभ्यास योग से न सध सकती हो। इस अभ्यास के बल पर कुछ लोग आकाश में विचरण करने लगते हैं, कुछ लोग व्याघ्रों और सर्पों को अपने अधीन कर लेते हैं, कुछ लोग विष को ही आहार बना लेते हैं, कुछ लोग समुद्र पर पैरों से चलने लगते हैं तथा कुछ लोग वेद-विद्या में पारंगत हो जाते हैं। इसलिये ऐसी कोई चीज नहीं है, जो अभ्यास से प्राप्त न किया जा सके। इसलिये तुम अभ्यासयोग के द्वारा ही मेरे स्वरूप में आ मिलो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (104-113)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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