श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-12
भक्ति योग
किंबहुना, हे धनुर्धर! जो माता के पेट में आता है, वह माता को कितना अधिक प्रिय होता है, इसी प्रकार वे भक्त भी चाहे जैसे हों, मुझे प्रिय होते हैं। कलि युग की समस्त बाधाओं को उनसे दूर रखकर उनकी रक्षा करने का मानो मैंने पट्टा ही लिखा लिया है और यदि ऐसा न हो, तो भी एक ओर तो मेरी भक्ति और दूसरी ओर संसार की चिन्ता। यह कैसी बेमेल बात है। क्या किसी धनाढ्य व्यक्ति की पत्नी भी भिक्षाटन कर सकती है? इसी प्रकार मेरा भक्त भी मेरा प्रिय पात्र होता है। फिर भला क्या उसकी लज्जा मुझे न होगी? जीवन और मरण की तरंगें समस्त सृष्टि पर पड़ती हैं। यह देखकर मेरे चित्त में यह भावना जगी कि कौन ऐसा प्राणी है जो इस संसार-सागर की तरंगों से पीड़ित न होता हो? ऐसी स्थिति में हो सकता है कि मेरे भक्त भी भयभीत हो जाते हों। इसीलिये हे पाण्डव! राम और कृष्ण इत्यादि के सहस्रों नामों को तुम सहस्रों नौकाएँ ही समझो। इन नौकाओं को इस संसार-सागर में सजाकर मैं अपने उन भक्तों का तारक बन गया हूँ। फिर मेरे जो भक्त सबसे अलग-थलग थे, उनके लिये मैंने अपने ध्यान का आधार प्रस्तुत किया और जो संसारी थे, उन्हें मैंने इन नौकाओं पर बैठाया। कुछ भक्तों के पेट के नीचे प्रेम की पेटी बाँधी। इस प्रकार अपने सारे भक्तों को मैंने सायुज्य के तट पर ला लगाया। सिर्फ यही नहीं, जिन-जिन लोगों ने मेरी भक्ति की, उन सबको, फिर चाहे वे पशु ही क्यों न रहे हों, मैंने अपना भक्त मानकर उन्हें वैकुण्ठ के साम्राज्य का स्वामी बनाया। यही कारण है कि मेरे भक्तों को किसी प्रकार की चिन्ता नहीं सताती और मैं उनका उद्धार करने के लिये सदा तत्पर रहता हूँ। ज्यों ही भक्तगण अपनी चित्तवृत्ति मुझे समर्पित करते हैं, त्यों ही वे मानो अपने प्रपंचरूपी खेलों में मुझे भी शामिल कर लेते हैं। इसलिये हे भक्तराज धनंजय! तुम अनवरत इस मन्त्र का पाठ किया करो कि जिस समय जीव इस अनन्य भक्ति का मार्ग ग्रहण करता है, उसी समय वह श्रेष्ठ भक्त हो जाता है।[1] |
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