ज्ञानेश्वरी पृ. 342

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

कुछ तो मानो तपाये हुए स्वर्ग के सदृश प्रतीत होते हैं, कुछ एकदम पीतवर्ण के हैं और कुछ के समस्त अंग सिन्दूर पोते हुए आकाश की भाँति सुशोभित हो रहे हैं। कुछ तो स्वभावतः ऐसे सुन्दर हैं कि मानो मणियों और मानिकों से जड़े हुए ब्रह्माण्ड के सदृश जान पड़ते हैं और कुछ कुंकुम से रँगे हुए अरुणोदय की प्रभा के सदृश चमक रहे हैं। कुछ स्वच्छ स्फटिक की भाँति निर्मल हैं, कुछ इन्द्रनील मणि की भाँति नीले हैं। कुछ अंजन की भाँति बिल्कुल काले हैं और कुछ लाल रंग के हैं। कुछ चमकते हुए स्वर्ण की भाँति पीतवर्ण हैं, कुछ वर्षा ऋतु के मेघों की भाँति श्यामवर्ण के हैं, कुछ सोन-चम्पा की भाँति गौर वर्ण के हैं और कुछ सिर्फ हरे हैं। कुछ तपाये हुए ताम्रवर्ण के सदृश लाल हैं, कुछ श्वेत चन्द्र के सदृश एकदम सफेद हैं। इस प्रकार तुम अनेक रंगों के मेरे रूप देखो। जैसे ये सब वर्ण पृथक्-पृथक् तरह के हैं, वैसे ही उनके आकार भी अलग-अलग हैं। कुछ तो इतने सुन्दर हैं कि मदन भी लज्जित होकर उनकी शरण में आता है। कुछ की बनावट ही अत्यन्त हल्की है और कुछ के शरीर अत्यन्त मनोहर हैं। कुछ तो ऐसे जान पड़ते हैं कि मानो वे श्रृंगार-लक्ष्मी के खुले हुए भण्डार ही हों। कुछ के अवयव अत्यन्त पुष्ट और मांसल हैं तो कुछ अत्यन्त शुष्क हैं। कुछ अति विकराल हैं, कुछ लम्बी ग्रीवा वाले हैं; कुछ अत्यन्त विशाल सिर वाले हैं और कुछ बहुत ही भयंकर तथा बेडौल हैं। इस प्रकार ऐसी अनेक प्रकार की आकृतियों की कोई सीमा नहीं है। देखो, इन आकृतियों के एक-एक अंग-प्रदेश में तुम्हें सारा जगत् ही दिखायी पड़ेगा।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (123-140)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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