श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
अत: जिन्होंने मेरे आत्मस्वरूप के अस्तित्व को ही अपने जीवन का आधार बना लिया है और जो मेरे सिवाय और किसी पर श्रद्धा नहीं रखते, मेरे अलावा सबको जिन्होंने असार मान रखा है, हे सुभट (अर्जुन)! उन महान् तत्त्वज्ञों के लिये मैं नित्य कपूर की मसाल जलाकर और उनके लिये स्वयं ही मसाल दिखाने वाला मसालची बनकर उनके आगे-आगे चलता हूँ। अज्ञानरूपी रात में जो घनघोर अँधेरा छाया रहता है, उनका विनाश करके मैं उनके लिये कभी नष्ट न होने वाले नित्य प्रकाश का उदय करता हूँ। जब प्रेमी भक्तों के प्रियोत्तम श्रीपृरुषोत्तम ने ये सब बातें कहीं, तब अर्जुन ने कहा-“मैं अब पूर्णतया संतृप्त हो गया हूँ। हे प्रभु, सुनिये। आपने मेरी संसाररूपी मैल हटा दी है। मैं अब जीवन और मृत्यु की अग्नि से मुक्त हो गया हूँ फिर से माता के गर्भ में आना समाप्त हो गया। मैंने आज अपना जन्म अपनी आँखों से देखा। आज मुझे जीवन की वास्वविकता का भान हो गया है और मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि आज मेरा जीवन सार्थक हो गया है। आज मेरा आयुष्य सफल हो गया है। आज मेरा भाग्योदय हो गया है, क्योंकि आज परमात्मा की प्रसाद-वाणी मेरे श्रवणेन्द्रियों में पहुँची है। आज इस वाणी के प्रकाश से मेरे बाह्याभ्यन्तर का अन्धकार मिट गया है। इसीलिये इस समय मुझे आपका वास्तविक स्वरूप दिखायी दे रहा है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (141-148)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |