ज्ञानेश्वरी पृ. 310

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-10
विभूति योग


तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥11॥

अत: जिन्होंने मेरे आत्मस्वरूप के अस्तित्व को ही अपने जीवन का आधार बना लिया है और जो मेरे सिवाय और किसी पर श्रद्धा नहीं रखते, मेरे अलावा सबको जिन्होंने असार मान रखा है, हे सुभट (अर्जुन)! उन महान् तत्त्वज्ञों के लिये मैं नित्य कपूर की मसाल जलाकर और उनके लिये स्वयं ही मसाल दिखाने वाला मसालची बनकर उनके आगे-आगे चलता हूँ। अज्ञानरूपी रात में जो घनघोर अँधेरा छाया रहता है, उनका विनाश करके मैं उनके लिये कभी नष्ट न होने वाले नित्य प्रकाश का उदय करता हूँ। जब प्रेमी भक्तों के प्रियोत्तम श्रीपृरुषोत्तम ने ये सब बातें कहीं, तब अर्जुन ने कहा-“मैं अब पूर्णतया संतृप्त हो गया हूँ। हे प्रभु, सुनिये। आपने मेरी संसाररूपी मैल हटा दी है। मैं अब जीवन और मृत्यु की अग्नि से मुक्त हो गया हूँ फिर से माता के गर्भ में आना समाप्त हो गया। मैंने आज अपना जन्म अपनी आँखों से देखा। आज मुझे जीवन की वास्वविकता का भान हो गया है और मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि आज मेरा जीवन सार्थक हो गया है। आज मेरा आयुष्य सफल हो गया है। आज मेरा भाग्योदय हो गया है, क्योंकि आज परमात्मा की प्रसाद-वाणी मेरे श्रवणेन्द्रियों में पहुँची है। आज इस वाणी के प्रकाश से मेरे बाह्याभ्यन्तर का अन्धकार मिट गया है। इसीलिये इस समय मुझे आपका वास्तविक स्वरूप दिखायी दे रहा है।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (141-148)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः