ज्ञानेश्वरी पृ. 286

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ॥31॥

यदि तुम्हारे अन्तःकरण में यह भाव उमड़ा हो कि मेरा भक्त कुछ काल के बाद अर्थात् मृत्यु के बाद मेरे समान होगा, तो मैं तुमसे पूछता हूँ कि जिसका निवास स्वयं अमृत में ही हो तो फिर भला उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है? जिस समय सूर्य का उदय नहीं हुआ रहता, उस समय को रात कहते हैं। इसी प्रकार जो कर्म बिना मेरी भक्ति के सम्पन्न किये जायँ, क्या उन्हें महापाप ही नहीं कहना चाहिये? अत: हे पाण्डुसुत! जिस समय उसकी चित्तवृत्ति को मेरा सान्निध्य मिल जाता है, उसी समय वह तत्त्वतः मेरे स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। यदि किसी प्रज्वलित दीप से कोई अन्य दीप प्रज्वलित कर लिया जाय तो यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें से पहले से जलने वाला दीपक कौन-सा है और दूसरा कौन-सा। इसी प्रकार जो पूरी तरह से मेरी भक्ति करता है, वह तत्क्षण ही मद्रूप हो जाता है। फिर मेरी जो कभी नष्ट न होने वाली नित्य शान्ति है, वही उसे प्राप्त हो जाती है, जिससे उसकी तेजस्विता बढ़ जाती है; बल्कि यूँ कहना चाहिये कि वह मेरे जीवन से ही जीवन धारण करता है।

हे पार्थ! इस विषय में अब कहाँ तक कही हुई बात को ही बार-बार कहा जाय। मुख्य तत्त्व यही है कि यदि किसी व्यक्ति को मुझे पाने की अभिलाषा हो तो उसे पूर्णरूप से मेरी भक्ति करना नहीं भूलना चाहिये। कुल की शुद्धता के पीछे मत दौड़ो, कुलीनता का बखान मत करो तथा ज्ञान का मिथ्या अभिमान त्याग दो। रूप-लावण्य तथा तारुण्य से मत वाले मत बनो और सम्पत्ति का गर्व मत करो; कारण कि यदि एक मेरी भक्ति न हो तो ये सारी बातें व्यर्थ साबित हो जाती हैं। यदि पौधें में अनाज की बालें तो बहुत लगी हों, पर उन बालों में दाने बिल्कुल न हों अथवा नगर तो बहुत सुन्दर और बड़ा हो, पर वह बिल्कुल वीरान पड़ा हो, तो वह किस काम का? अथवा जैसे हो तो सरोवर, पर सूखा पड़ा हो अथवा जंगल में किसी दुःखी व्यक्ति की किसी दूसरे दुःखी से भेंट हो अथवा वृक्ष तो हो, पर वन्ध्या फूलों से लदा हो, बस इसी प्रकार सारा ऐश्वर्य अथवा कुल और जाति का महत्त्व भी जानना चाहिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः