ज्ञानेश्वरी पृ. 112

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥25॥

जो अहर्निश योग-यज्ञ करते रहते हैं और गुरु के उपदेशों की मन्त्ररूपी अग्नि में मनसहित अविद्या की आहुति देते रहते हैं, वे योगरूप अग्नि को ग्रहण किये हुए अग्निहोत्री जो यज्ञ करते हैं, उसे दैवयज्ञ कहते हैं। हे अर्जुन! उसमें आत्मसुख की इच्छा रहती है। जिसका पालन प्रारब्ध कर्म के अनुसार होता है, उस शरीर के पोषण की चिन्ता जो नहीं करता, उसे दैवयज्ञरूप योग से महायोगी ही जानो। अब मैं तुम्हें यज्ञ के कुछ और प्रकार भी बतलाता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। जो ब्रह्माग्नि से अग्निहोत्र करते हैं, वे उस यज्ञ से ही यज्ञ-विधि करते हैं।[1]


श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥26॥

धारणा, ध्यान, समाधिरूप संयम, यही कोई अग्निहोत्र करने वाले कित्येक मूलबंधादिक तीन बंधरूप मंत्र द्वारा, इन्द्रियरूपी पवित्र द्रव्य से यज्ञ करते हैं। दूसरे कित्येक वैराग्यरूप सूर्य के उदय होने के साथ संयमरूप कुण्ड की अर्थात् यज्ञवेदी की रचना करते हैं फिर उस कुण्ड में इन्द्रियरूप अग्नि प्रकट होता है। जिस समय वैराग्यरूपी ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है, उस समय उसमें विकाररूपी ईंधन जलने लगते हैं और अन्तःकरण पंचकरूपी पंच-कुण्डों को छोड़कर आशारूपी धूम्र बाहर निकल जाता है, जिससे वे कुण्ड स्वच्छ हो जाते हैं। तब इस प्रकार के लोग ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को उच्चारण करते हुए अन्तःकरण के कुण्ड में इन्द्रियरूपी अग्नि के मुख में विषयों की आहुति देते हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (123-126)
  2. (127-130)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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