श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
जो अहर्निश योग-यज्ञ करते रहते हैं और गुरु के उपदेशों की मन्त्ररूपी अग्नि में मनसहित अविद्या की आहुति देते रहते हैं, वे योगरूप अग्नि को ग्रहण किये हुए अग्निहोत्री जो यज्ञ करते हैं, उसे दैवयज्ञ कहते हैं। हे अर्जुन! उसमें आत्मसुख की इच्छा रहती है। जिसका पालन प्रारब्ध कर्म के अनुसार होता है, उस शरीर के पोषण की चिन्ता जो नहीं करता, उसे दैवयज्ञरूप योग से महायोगी ही जानो। अब मैं तुम्हें यज्ञ के कुछ और प्रकार भी बतलाता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। जो ब्रह्माग्नि से अग्निहोत्र करते हैं, वे उस यज्ञ से ही यज्ञ-विधि करते हैं।[1]
धारणा, ध्यान, समाधिरूप संयम, यही कोई अग्निहोत्र करने वाले कित्येक मूलबंधादिक तीन बंधरूप मंत्र द्वारा, इन्द्रियरूपी पवित्र द्रव्य से यज्ञ करते हैं। दूसरे कित्येक वैराग्यरूप सूर्य के उदय होने के साथ संयमरूप कुण्ड की अर्थात् यज्ञवेदी की रचना करते हैं फिर उस कुण्ड में इन्द्रियरूप अग्नि प्रकट होता है। जिस समय वैराग्यरूपी ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है, उस समय उसमें विकाररूपी ईंधन जलने लगते हैं और अन्तःकरण पंचकरूपी पंच-कुण्डों को छोड़कर आशारूपी धूम्र बाहर निकल जाता है, जिससे वे कुण्ड स्वच्छ हो जाते हैं। तब इस प्रकार के लोग ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को उच्चारण करते हुए अन्तःकरण के कुण्ड में इन्द्रियरूपी अग्नि के मुख में विषयों की आहुति देते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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