गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
उपाध्यायान्दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता । “दसोपाध्यायों से आचार्य,” और सौ आचार्यों से पिता एवं हजार पिताओं से माता का गौरव अधिक है।” इतना होने पर भी यह कथा प्रसिद्ध है[1] कि परशुराम की माता ने कुछ अपराध किया था, इसलिये उसने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता को मार डाला। तिपर्व[2] शाके चिरका रिकोपाख्यान में, अनेक साधक-बाधक प्रमाणों सहित इस बात का विस्तृत विवेचन किया गया है कि पिता की आज्ञा से माता का वध करना श्रेयस्कर है या पिता की आज्ञा का भंग करना श्रेयस्कर है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि महाभारत के समय ऐसे सूक्ष्म प्रसंगों की, नीतिशास्त्र की दृष्टि से, चर्चा करने की पद्धति जारी थी। यह बात छोटों से लेकर बड़ों तक सब लोगों को मालूम है कि पिता की प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिये, पिता की आज्ञा से, रामचंद्र ने चौदह वर्ष वनवास किया परन्तु माता के संबंध में जो न्याय ऊपर कहा गया है वही पिता के संबंध में भी उपयुक्त होने का समय कभी कभी आ सकता है। जैसे मान लीजिये, कोई लड़का अपने पराक्रम से राजा हो गया और उसका पिता अपराधी हो कर इन्साफ के लिये उसके सामने लाया गया; इस अवस्था में वह लड़का क्या करे- छोड़ दे मनुजी कहते हैः- पिता आचार्यः सुहन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः । “पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित- इनमें से कोई भी यदि अपने धर्म के अनुसार न चले तो वह राजा के लिये आदरणीय नहीं हो सकता अर्थात राजा उसको उचित दंड दे”[3]। इस जगह पुत्र धर्म की योग्यता से राजधर्म की योग्यता अधिक है। इस बात का उदाहरण[4] यह है कि सूर्य वंश के महापराक्रमी सगर राजा ने असमंजस नामक अपने लड़के को देश से निकाल दिया था; क्योंकि वह दुराचारी था और प्रजा को दुःख दिया करता था। मनुस्मृति में भी यह कथा है कि आंगिरस नामक एक ऋषि को छोटी अवस्था ही में बहुत ज्ञान हो गया था इसलिये उसके काका-मामा आदि बड़े बूढे नातेदार उसके पास अध्याय करने लग गये थे। एक दिन पाठ पढ़ाते-पढ़ाते आंगिरस ने कहा, पुत्र का इति हो वाच ज्ञानेन परिगृहय तान्। बस, यह सुनकर सब वृद्धजन क्रोध से लाल हो गये और कहने लगे कि यह लड़का मस्त हो गया है। उसको उचित दंड दिलाने के लिये उन लोगों ने देवताओं से शिकायत की। देवताओं ने दोनों ओर का कहना सुन लिया और यह निर्णय किया कि” आंगिरस ने जो कुछ तुम्हें कहा, वही न्याय है” इसका कारण यह है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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