गीता रहस्य -तिलक पृ. 37

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

यह सूचना देते समय सूर्य ने कर्ण से कहा”इसमें संदेह नहीं कि तू बड़ा दानी है, परन्तु इसलिये तू अपने कवचकुंडल दान में दे देगा तो तेरे जीवन ही की हानि हो जायेगी, इसलिये तू इन्हें किसी को न देना। मर जाने पर कीर्ति का क्या उपयोग है- मृतस्य कीत्र्या किं कार्यम”। यह सुनकर कर्ण ने स्पष्ट उत्‍तर दिया कि “जीवितेनापि में रक्ष्या कीर्तिस्तद्धिद्धि मे व्रतम”- अर्थात जान चली जाय तो भी कुछ परवा नहीं, परन्तु अपनी कीर्ति की रक्षा करना ही मेरा व्रत है[1]। सारांश यह है कि “यदि मर जायगा तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी और जीत जायेगा तो पृथ्वी का राज्य मिलेगा” इत्यादि क्षात्र धर्म[2] और “स्वधर्मे निधनं श्रेयः”[3] यह सिद्धांत उक्त तत्त्व पर ही अवलंबित है।

इसी तत्त्व के अनुसार श्री समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं” कीर्ति की और देखने से सुख नहीं है और सुख की और देखने से कीर्ति नहीं मिलती”[4]; और वे उपदेश भी करते हैं कि “हे सज्जन मन! ऐसा काम करो जिससे मरने पर कीर्ति बनी रहे।” यहाँ प्रश्‍न हो सकता है कि यद्यपि परोपकार से कीर्ति होती है तथापि मृत्यु के बाद कीर्ति का क्या उपयोग है अथवा किसी सभ्य मनुष्य को अपकीर्ति की अपेक्षा मर जाना[5] या जिंदा रहने से परोपकार करना, अधिक प्रिय क्यों मालूम होना चाहिये? इस प्रश्न का उचित उत्‍तर देने के लिये आत्म-विचार में प्रवेश करना होगा और इसी के साथ कर्म अकर्मशास्त्र का भी विचार करके यह जान लेना होगा कि किस मौके पर जान देने के लिये तैयार होना उचित या अनुचित है?

यदि इस बाता का विचार नहीं किया जायगा तो जान देने से यश की प्राप्ति तो दूर ही रही, परन्तु मूर्खता से आत्महत्या करने का पाप मत्थे चढ़ जायेगा। माता, पिता, गुरु आदि वन्दनीय और पूजनीय पुरुषों की पूजा तथा शुश्रुशा करना भी सर्वमान्य धर्म में से, एक प्रधान धर्म समझा जाता है। यदि ऐसा न हो तो कुटुंब, गुरुकुल और सारे समाज की व्यवस्था ठीक ठीक कभी रह न सकेगी। यही कारण है कि सिर्फ स्मृति-ग्रंथों में ही नहीं किंतु उपनिशदो में भी “सत्यं वद, धर्म चर” कहा गया है और जब शिष्य का अध्ययन पूरा हो जाता है और[6] वह अपने घर जाने लगता है तब प्रत्येक गुरु का यही उपदेश होता था कि “मातृदेवो भव पितृदेवो भव। आचार्य देवो भव”[7]महाभारत के ब्राह्मण व्याध आख्यान का तात्पर्य भी यही है[8] परंतु इस धर्म में भी कभी कभी अकल्पित बाधा खड़ी हो जाती है। देखिये, मनुजी कहते हैं[9]:-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. वन. 266. 38
  2. गी. 2.37
  3. गी. 3.35
  4. दास. 123.10.16; 18.10.25
  5. गी. 2.34
  6. गी.र. 6कर्मजिज्ञासा।
  7. तै. 1.11.1 और 2
  8. वन. अ. 213
  9. 2.145

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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