गीता रहस्य -तिलक पृ. 39

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

 
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
 यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं बिंदुः।।

“सिर के बाल सफेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता; देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरुण होने पर भी ज्ञानवान हो” [1]। यह तत्त्व मनुजी और व्यासजी ही को नहीं, किंतु बुद्ध को भी, मान्य था। क्योंकि मनु स्मृति के इस श्लोक का पहला चरण ‘धम्मपद’ [2]नाम के प्रसिद्ध नीति विषयक पाली भाषा के बौद्ध ग्रंथ में अक्षरश: आया है [3]। और, उसके आगे यह भी कहा है कि जो सिर्फ अवस्था ही से वृद्ध हो गया है उसका जीना व्यर्थ है; यथार्थ में धर्मिष्ठ और वृद्ध होने के लिये सत्य, अहिंसा आदि की आवश्यकता है। ‘चुलवग’ नामक दूसरे ग्रंथ[4] में स्वयं बुद्ध की यह आज्ञा है कि यद्यपि धर्म का निरूपण करने वाला भिक्षु नया हो तथापि वह ऊँचे आसन पर बैठे और उन वयोवृद्ध भिक्षुओं को भी उपदेश करे जिन्होंने उसके पहले दीक्षा पाई हो। यह कथा सब लोग जानते हैं कि प्रह्लाद ने अपने पिता हिरणयकशिपु की अवज्ञा करके भगवत प्राप्ति कैसे कर ली थी।

इससे यह जान पड़ता है कि जब, कभी कभी पिता-पुत्र के सर्वमान्य नाते से भी कोई दूसरा अधिक बड़ा संबंध उपस्थित होता है, तब उतने समय के लिये निरूपाय होकर पितापुत्र का नाता भूल जाना पड़ता है। परन्तु ऐसे अवसर के न होते हुए भी, यदि कोई मुँहजोर लड़का, उक्त नीति का अवलंब करके, अपने पिता को गालियां देने लगे, तो वह केवल पशु के समान समझा जायगा। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है” गुरुर्गरीयान् पितृतो मातृतश्रेति मे मतिः”[5]- अर्थात गुरु, माता-पिता से भी श्रेष्ठ है। परन्तु महाभारत ही में यह भी लिखा है कि, एक समय मरुत राजा के गुरु ने लोभवश होकर स्वार्थ के लिये उसका त्याग किया तब मरुत ने कहा:-

 न तेन थेरो हौति येनस्स पलितं सिरों।
परिपक्कों क्यो तस्स मोघजिण्णो ति वुच्चति।

’थेर’ शब्द बुद्ध भिक्षुओं के लिये प्रयुक्त हुआ है। यह संस्कृत ’स्थविर’ का अपभ्रंश है।

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्या कार्यमजानतः।
उत्पथप्रतिपनस्य न्यायं भवति शासनम्।।

’’ यदि कोई गुरु इस बात का विचार न करे कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिए और यदि वह अपने ही घमंड में रह कर टेढ़े रास्ते से चले, तो उसका शासन करना उचित है” उक्त श्लोक महाभारत में, चार स्थानों में पाया जाता है [6]। इनमें से पहले स्थान में वही पाठ है जो ऊपर दिया गया है; अन्य स्थानों में चौथे चरण के बदले “दंडो भवति शाशतः” अथवा “परित्यागो विधीयते’’ यह पाठांतर भी है। परंतु वाल्मीकि रामायण[7] में जहाँ यह श्लोक है वहाँ ऐसा ही पाठ है जैसा ऊपर दिया गया है, इसलिये हमने इस ग्रंथ में उसी को स्वीकार किया है। इस श्लोक में जिस तत्त्व का वर्णन किया गया है उसी के आधार पर भीष्म पितामह ने परशुराम से और अर्जुन ने द्रोणाचार्य से युद्ध किया; और जब प्रह्लाद ने देखा कि अपने गुरु, जिन्हें हिरणयकशिपु ने नियत किया है, भगवत्प्राप्ति के विरुद्ध उपदेश कर रहे है; तब उसने इसी तत्त्व के अनुसार उनका निषेध किया है। शांतिपर्व में स्वयं भीष्म पितामह श्रीकृष्ण से कहते हैं कि यद्यपि गुरु लोग पूजनीय हैं तथापि उनको भी नीति की मर्यादा का अवलंब करना चाहिये; नहीं तो -

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 2.156 और मभा. वन. 133.11; शल्य. 51.47
  2. ‘धम्मपद’ ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद प्राच्यधर्म- पुस्तकमाला’ ( Sacred Books of the East Vol. 5.) में किया गया है और चुलवग का अनुवाद भी उसी माला के Vol. 12 और 20 में प्रकाशित हुआ है। धम्मपद का पाली श्लोक यह हैः-
  3. धम्मपद. 260
  4. 6.13.1
  5. शा. 108.17
  6. आ. 142.52,53; उ. 179.24; शा. 57.7; 140.48
  7. 2.21.13

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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