गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
ये दोनों मार्ग अथवा निष्ठाएं ब्रह्मविद्यामूलक हैं; दोनों ओर मन की निष्काम अवस्था। और शान्ति एक ही प्रकार की है; इस कारण दोनों मार्गों से अन्त में एक ही मोक्ष प्राप्त हुआ करता है[1]। ज्ञान के पश्चात कर्म को छोड़ बैठना, और काम्य कर्म छोड़ कर नित्य निष्काम कर्म करते रहना, यही इन दोनों में मुख्य भेद है। ऊपर बतलाये हुए कर्म करने के दोनों मार्ग ज्ञानमूलक हैं अर्थात् ज्ञान के पश्चात् ज्ञानी पुरुषों के द्वारा स्वीकृत और प्राचरित हैं। परन्तु कर्म छोड़ना और कर्म करना, दोनों बातें ज्ञान न होने पर भी हो सकती हैं। इसलिये अज्ञान मूलक कर्म का और कर्म के त्याग का भी यहाँ थोड़ा सा विवेचन करना आवश्यक है। गीता के अठारहवें अध्याय में त्याग के जो तीन भेद बतलाये गये हैं, उनका रहस्य यही है। ज्ञान न रहने पर भी कुछ लोग निरे काय-क्लेश-भय से कर्म छोड़ दिया करते हैं। इसे गीता में ‘राजस त्याग’ कहा है[2]। इसी प्रकार, ज्ञान न रहने पर भी, कुछ लोग कोरी श्रद्धा से ही यज्ञ-याग प्रभृति कर्म किया करते हैं परन्तु गीता का कथन है कि कर्म करने का यह मार्ग मोक्षप्रद नहीं-केवल स्वर्गप्रद है[3]। कुछ लोगों की समझ है, कि आज कल यज्ञ-याग प्रभृति श्रौतधर्म का प्रचार न रहने के कारण मीमांसकों के इस निरे कर्ममार्ग के सम्बन्ध में गीता का सिद्धान्त इन दिनों विशेष उपयोगी नहीं। परन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि श्रौत यज्ञ-याग भले ही डूब गये हों पर स्मार्त यज्ञ अर्थात् चातुर्वणर्य के कर्म अब भी जारी हैं। इसलिये अज्ञान से, परन्तु श्रद्धापूर्वक, यज्ञ-याग आदि काम्य कर्म कनेवाले लोगों के विषय में गीता का जो सिद्धान्त है, वह ज्ञान-विरहित किन्तु श्रद्धा सहित चातुर्वणर्य आदि कर्म करनेवालों को भी वर्तमान स्थिति में पूर्ण-तथा उपयुक्त है। जगत् के व्यवहार की ओर दृष्टि देने पर ज्ञात होगा, कि समाज में इसी प्रकार के लोगों की अर्थात् शास्त्रों पर श्रद्धा रख कर नीति से अपने-अपने कर्म करनेवालों की ही विशेष अधिकता रहती है परन्तु उन्हें परमेश्वर का स्वरूप पूर्णतया ज्ञात नहीं रहता इसलिये, गणितशास्त्र की पूरी उपपत्ति समझे बिना ही केवल मुखाग्र हिसाब की रीति से हिसाब लगानेवाले लोगों के समान, इन श्रद्धालु और कर्मठ मनुष्यों की अवस्था हुआ करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी कर्म शास्त्रोक्त विधि से और श्रद्धापूर्वक करने के कारण निर्भ्रान्त (शुद्ध) होते हैं एवं इसी से वे पुण्यप्रद अर्थात् स्वर्ग के देनेवाले हैं। परन्तु शास्त्र का ही सिद्धान्त है, कि बिना ज्ञान के मोक्ष नही मिलता, इसलिये स्वर्ग-प्राप्ति की अपेक्षा अधिक महत्व का कोई भी फल इन कर्मठ लोगों को मिल नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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