गीता रहस्य -तिलक पृ. 348

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

अतएव जो अमृतत्‍व, स्‍वर्ग-सुख से भी परे है, उसकी प्राप्ति जिसे कर लेनी हो-और यही एक परम पुरुषार्थ है-उसे उचित है, कि वह पहले साधन समझ कर, और आगे सिद्धावस्‍था में लोकसंग्रह के लिये अर्थात् जीवनपर्यन्‍त ‘’समस्‍त प्राणिमात्र में एक ही आत्‍मा है’’ इस ज्ञानयुक्‍त बुद्धि से, निष्‍काम कर्म करने के मार्ग को ही स्‍वीकार करे। आयु बिताने के सब मार्गों में यही मार्ग उत्‍तम है। गीता का अनुसारण कर ऊपर दिये गये नक्‍शे में इस मार्ग को कर्मयोग कहा है और इसे ही कुछ लोग कर्ममार्ग या प्रवृत्तिमार्ग भी कहते हैं। परन्‍तु कर्ममार्ग या प्रवृत्तिमार्ग, दोनों शब्‍दों में एक दोष है-वह यह कि उनसे ज्ञान-विरहित किन्‍तु श्रद्धा-सहित कर्म करने के स्‍वर्गप्रद मार्ग का भी सामान्‍य बोध हुआ करता है। इसलिये ज्ञान-विरहित किन्‍तु श्रद्धायुक्‍त कर्म, और ज्ञानयुक्‍त निष्‍काम कर्म, इन दोनों का भेद दिखलाने के लिये दो भिन्‍न भिन्‍न शबदों की योजना करने की आवश्‍यकता होती है। और, इसी कारण से मनुस्‍मृति तथा भागवत में भी पहले प्रकार के कर्म अर्थात् ज्ञानविरहित कर्म को ‘प्रवृत्‍त कर्म’ और दूसरे प्रकार के अर्थात् ज्ञानयुक्‍त निष्‍काम कर्म को ‘निवृत्‍त कर्म’ कहा है ( मनु. 12. 89; भाग 7. 15. 47 )।

परन्‍तु हमारी राय में ये शब्‍द भी, जितने होने चाहिये उतने, निस्‍सन्दिग्‍ध नहीं हैं; क्‍योंकि ‘निवृत्ति’ शब्‍द का सामान्‍य अर्थ ‘कर्म से परावृत्त होना’ है। इस शंका को दूर करने के लिये ‘निवृत्त’ शब्‍द के आगे ‘कर्म’ विशेषण जोड़ते हैं; और ऐसा करने से निवृत्त कर्म=निष्‍काम कर्म, यह अर्थ निष्‍पन्‍न हो जाता है। कुछ भी हो, जब तक ‘निवृत्त’ शब्‍द उसमें है, तब तक कर्मत्‍याग की कल्‍पना मन में आये बिना नहीं रहती। इसीलिये ज्ञानयुक्‍त निष्‍काम कर्म करने के मार्ग को ‘निवृत्ति या निवृत्त कर्म’ न कह कर ‘ कर्मयोग’ नाम देना हमारे मत में उत्तम है। क्‍योंकि कर्म के आगे योग शब्‍द जुड़ा रहने से स्‍वभावत: उसका अर्थ ‘मोक्ष में बाधा न दे कर कर्म करने की युक्ति’ होता है; और अज्ञानयुक्‍त कर्म का तो आप ही से निरसन हो जाता है। फिर भी यह न भूल जाना चाहिये, कि गीता का कर्मयोग ज्ञानमूलक है, और यदि इसे ही कर्ममार्ग या प्रवृत्तिमार्ग कहना किसी को अभीष्‍ट जँचता हो, तो ऐसा करने में कोई हानि नहीं। स्‍थल-विशेष में भाषावैचित्र्य के लिये गीता के कर्मयोग को लक्ष्‍य कर हमने भी इन शब्‍दों की योजना की है। अस्‍तु: इस प्रकार कर्म कने या कर्म छोड़ने के ज्ञान- मूलक और अज्ञानमूलक जो भेद हैं, उनमें से प्रत्‍येक के सम्‍बन्‍ध में गीताशास्‍त्र का अभिप्राय इस प्रकार है:-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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