गीता रहस्य -तिलक पृ. 346

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण
ब्रह्मविद्या या आत्मज्ञान प्राप्त होने पर
क्रमांक कर्मसंन्यास (सांख्य)। कर्मयोग (योग)।
1. मोक्ष आत्‍मज्ञान से ही मिलता है , कर्म से नही। ज्ञान-विरहित किन्‍तु श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ-याग आदि कर्मों से मिलनेवाला स्‍वर्गसुख आनत्‍य है। मोक्ष आत्‍मज्ञान से ही मिलता है, कर्म से नही। ज्ञान विरहित किन्‍तु श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ-याग आदि कर्मों से मिलने वाला स्‍वर्गसुख अनित्‍य है।
2. आत्‍मज्ञान होने के लिये इन्द्रिय-निग्रह से बुद्धि इन्द्रिय-निग्रह से बुद्धि को स्थिर, निष्‍काम, विरक्‍त और सम करना पड़ता है। आत्‍मज्ञान होने के लिये इन्द्रिय-निग्रह से बुद्धि को स्थिर, निष्‍काम, विरक्‍त और सम करना पड़ता है।
3. इसलिये इन्द्रियों के विषयों का पाश तोड़ कर मुक्‍त ( स्‍वतंत्र) हो जाओ। इसलिये इन्द्रियों के विषयों को न छोड़ कर उन्‍हीं में वैराग्‍य से अर्थात् निष्‍काम-बुद्धि से व्‍यवहार कर इन्द्रिय-निग्रह की जांच करो। निष्‍काम के मानी निष्क्रिय नहीं।
4. तृष्‍णामूलक कर्म दु:खमय और बधंक हैं। यदि इसका खूब विचार करें कि दु:ख और बन्‍धन किसमें हैं, तो देख पड़ेगा कि अचेतन कर्म किसी को भी बांधते या छोड़ते नहीं हैं, उनके सम्‍बन्‍ध में कर्त्‍ता के मन में जो काम या फलाशा होती है, वही बन्‍धन और दु:ख की जड़ है।
5. इसलिये चित्‍तशुद्धि होने तक यदि कोई कर्म करे, तो भी अन्‍त में छोड़ देना चाहिये। इसलिये चित्‍त शुद्धि हो चुकने पर भी फलाशा छोड़ कर, धैर्य और उत्‍साह के साथ सब कर्म करते रहो। यदि कहो कि कर्मों को छोड़ दें,, तो वे छूट नहीं सकते। सृष्टि ही तो एक कर्म है, उसे विश्राम है ही नहीं।
6. यज्ञ के अर्थ किये गये कर्म बन्‍धक न होने के कारण, गृहस्‍थाश्रम में उनके करने से हानि नहीं है। निष्‍काम-बुद्धि से या ब्रह्मार्पणविधि से किया गया समस्‍त कर्म एक भारी ‘यज्ञ’ ही है। इसलिये स्‍वधर्म-विहित समस्‍त कर्म को निष्‍काम बुद्धि से केवल कर्तव्‍य समझ कर सदैव करते रहना चाहिये।
7. देह के धर्म कभी छूटते नहीं, इस कारण संन्‍यास लेने पर पेट के लिये भिक्षा मांगना बुरा नहीं। पेट के लिये भीख मांगना भी तो कर्म ही है; और जब ऐसा ‘निर्लज्‍जता’ का कर्म कना ही है तब अन्‍यान्‍य कर्म भी निष्‍काम बुद्धि से क्‍यों न किये जावें? गृहस्‍थाश्रमी के अतिरिक्‍त भिक्षा देगा ही कौन?
8. ज्ञान प्राप्ति के अनन्‍तर अपना निजी कर्तव्‍य कुछ शेष नहीं रहता और लोकसंग्रह करने की कुछ आवश्‍यकता नहीं। ज्ञान प्राप्ति के अनन्‍तर अपने लिये भले ही कुछ प्राप्‍त करने को न रहे, परनतु कर्म नहीं छूटते। इसलिये जो कुछ शास्‍त्र से प्राप्‍त हो, उसे ‘मुझे नहीं चाहिये’ ऐसी निर्मम बुद्धि से लोकसंग्रह की ओर दृष्टि रख कर करते जाओ। लोकसंग्रह किसी का भी नहीं छूटता; उदाहरणार्थ भगवान् का चरित्र देखो[1]
9. परंतु, यदि अपवाद-स्‍वरूप कोई अधिकारी पुरुष ज्ञान के पश्‍चात् भी अपने व्‍यावहारिक अधिकार जनक आदि के समान जीवन पर्यन्‍त जारी रखे, तो कोई हानि नहीं। गुणविभाग-रूप चातुर्वणर्य व्‍यवस्‍था के अनुसार छोटे बड़े अधिकार सभी को जन्‍म से ही प्राप्‍त होते हैं; स्‍वधर्मानुसार प्राप्‍त होने वाले इन अधिकारों को लोकसंग्रहार्थ नि:संग बुद्धि से सभी को निरपवाद-रूप से जारी रखना चाहिये क्‍योंकि यह चक्र जगत् को धारण करने के लिये परमेश्‍वर ने ही बनाया है।
10. इतना होने पर भी कर्म-त्‍याग रूपी संन्‍यास ही श्रेष्‍ठ है। अन्‍य आश्रमों के कर्म चित्‍तशुद्धि के साधनमात्र हैं, ज्ञान और कर्म का तो स्‍वभाव से ही विरोध है। इसलिये पूर्व आश्रम में, जितनी जल्‍दी हो सके उतनी जल्‍दी, चित्‍तशुद्धि करके अन्‍त में कर्म त्‍यागरूपी संन्‍यास लेना चाहिये। चित्‍तशुद्धि जन्‍मते ही या पूर्व आयु में हो जावें, तो गृहस्‍थाश्रम के कर्म करते रहने की भी आवश्‍यकता नहीं है। कर्म का स्‍वरूपत: त्‍याग करना ही सच्‍चा संन्‍यास आश्रम है। यह सच है कि शास्‍त्रोक्‍त रीति से सांसारिक कर्म करने पर चित्‍तशुद्धि होती है। परन्‍तु केवल चित्‍त की शुद्धि की कर्म का उपयोग नहीं है। जगत का व्‍यवहार चलता रखने के लिये भी कर्म की आवश्‍यकता है। इसी प्रकार काम्‍य कर्म और ज्ञान का विरोध भले ही हो, पर निष्‍काम कर्म और ज्ञान के बीच बिलकुल विरोध नहीं। इसलिये चित्‍त की शुद्धि के पश्‍चात भी फलाशा का त्‍याग कर निष्‍काम बुद्धि से जगत के संग्रहार्थ चातुर्वणर्य के सब कर्म आमरणान्‍त जारी रखो। यही सच्‍चा संन्‍यास है कर्म का स्‍वरूपत: त्‍याग करना कभी भी उचित नहीं और शक्‍य भी नहीं है।
11. कर्म संन्‍यास ले चुकने पर भी शम-दम आदिक धर्म पालते जाना चाहिये। ज्ञान-प्राप्ति के पश्‍चात् फलाशा-त्‍याग-रूप संन्‍यास ले कर, शम-दम आदिक धर्मों के सिवा आत्‍मौपम्‍य दृष्टि से प्राप्‍त होने वाले सभी धर्मों का पालन किया करे। और, इस शम अर्थात् शान्‍तवृत्ति से ही, शास्‍त्र से प्राप्‍त समस्‍त कर्म, लोकसंग्रह के निमित्‍त मरण पर्यन्‍त करता जावे। निष्‍काम कर्म न छोड़े।
12. यह मार्ग अनादि और श्रुति-स्‍मृति-प्रतिपादित है। यह मार्ग अनादि और श्रुति-स्‍मृति-प्रतिपादित है।
13. शुक्र-याज्ञवल्‍क्‍य आदि इस मार्ग से गये हैं। व्‍यास–वशिष्‍ठ-जैगीषव्‍य आदि और जनक-श्रीकृष्‍ण प्रभृति इस मार्ग से गये हैं।
अन्‍त में मोक्ष।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. र. 45

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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