गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
कर्म स्वभावत: अंध, अचेतन या मृत होता है; वह न तो किसी को स्वंय पकड़ता है और न किसी को छोड़ता ही है; वह स्वयं न अच्छा है, न बुरा। मनुष्य अपने जी को इन कर्मों में फंसा कर इन्हें अपनी आसक्ति से अच्छा या बुरा, और शुभ या अशुभ बना लेता है। इसलिये कहा जा सकता है कि इस ममत्व युक्त-आसक्ति के छूटने पर कर्म के बन्धन आप ही टूट जाते हैं; फिर चाहे वे कर्म बने रहें या चले जायं। गीता में भी स्थान स्थान पर यही उपदेश दिया गया है कि:- सच्चा नैष्कर्म्य इसी में है, कर्म का त्याग करने में नहीं[1]; तेरा अधिकार केवल कर्म करने का है, फल का मिलना न मिलना तेरे अधिकार की बात नहीं है[2]; “कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त:”[3]– फल की आशा न रख कर्मेन्द्रियों को कर्म करने दे; “त्यक्त्वा कर्मफलासंगम”[4] –कर्मफल का त्याग कर, “सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते”[5]– जिन पुरुषों की समस्त प्रणियों में समबुद्धि हो जाती है उनके किये हुए कर्म उनके बन्धन का कारण नहीं हो सकते; “सर्वकर्मफलत्यागं कुरु”[6]– सब कर्मफलों का त्याग कर; “कार्य मित्येव यत्कर्म नियतं क्रियते”[7]–केवल कर्तव्य समझ कर जो प्राप्त कर्म किया जाता है वही सात्त्विक है; “चेतसा सर्वकार्माणि मयि संन्यस्य”[8] सब कर्मों को मुझे अपूर्ण करके बर्ताव कर। इन सब उपदेशों का रहस्य वही है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। यह एक स्वतंत्र प्रश्न है कि ज्ञानी मनुष्यों को सब व्यावहारिक कर्म करना चाहिये या नहीं। इसके सम्बन्ध में गीताशास्त्र का जो सिद्धांत है उसका विचार अगले प्रकरण में किया जायगा। अभी तो केवल यही देखना है कि ज्ञान से सब कर्मों के भस्म हो जाने का अर्थ क्या है; और ऊपर दिये गये वचनों से इस विषय के सम्बन्ध में गीता का जो अभिप्राय है, वह भली-भाँति प्रगट हो जाता है। व्यवहार में भी इसी न्याय का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, यदि एक मनुष्य ने किसी दूसरे मनुष्य को धोखे से धक्का दे दिया तो हम उसे उजड्ड नहीं कहते। इसी तरह यदि दुर्घटना से किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे फौजदारी कानून के अनुसार खून नहीं समझते। अग्नि से घर जल जाता है अथवा पानी से सैकडों खेत बह जाते हैं, तो क्या अग्नि और पानी को कोई दोषी समझता है। केवल कर्मों की और देखे तो मनुष्य की दृष्टि से प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ दोष या अवगुण अवश्य ही मिलेगा “सर्वारंभा हि दोषेणा धूमेनाग्रिरिवावृता:”[9]। परन्तु यह वह दोष नहीं है कि जिसे छोड़ने के लिये गीता कहती है मनुष्य के किसी कर्म को जब हम अच्छा या बुरा कहते हैं, तब यह अच्छापन या बुरापन यथार्थ में उस कर्म में नहीं रहता, किन्तु कर्म करने वाले मनुष्य की बुद्धि में रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता. 3. 4
- ↑ गी. 2.47
- ↑ गी. 3.7
- ↑ गी. 4. 20
- ↑ गी. 5. 7
- ↑ गी. 12.11
- ↑ गी.18.9
- ↑ गी.18.57
- ↑ गी.18. 48
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