गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
इसी बात पर ध्यान दे कर गीता[1] में कहा है कि इन कर्मों के बुरेपन को दूर करने के लिये कर्ता को चाहिये कि वह अपने मन और बुद्धि को शुद्ध रखे; और उपनिषदों में भी कर्ता की बुद्धि को ही प्रधानता दी गई है, जैसे:- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: “मनुष्य के (कर्म से) बंधन या मोक्ष का मन ही (एव) कारण है; मन के विषयास्क्त होने से बंधन, और निष्काम या निर्विषय अर्थात नि:संग होने से मोक्ष होता है “[2]। गीता में यही बात प्रधानता से बतलाई गई है कि, ब्रह्मात्म्यैक्य ज्ञान से बुद्धि की उक्त साम्यावस्था कैसे प्राप्त कर लेनी चाहिये इस अवस्था के प्राप्त हो जाने पर कर्म करने पर भी पूरा कर्म-क्षय हो जाया करता है। निरग्रि होने से अर्थात संन्यास ले कर अग्निहोत्र आदि कर्मों को छोड़ देने से, अथवा अक्रिय रहने से अर्थात् किसी भी कर्म को ने कर चुपचाप बैठे रहने से, कर्म का क्षय नही होता[3]। चाहे मनुष्य की इच्छा रहे या न रहे, परन्तु प्रकृति का चक्र हमेशा घूमता ही रहता है जिसके कारण मनुष्य को भी उसके साथ अवश्य ही चलना पड़ेगा (गी.3. 33; 18. 60)। परन्तु अज्ञानी जन ऐसी स्थिति में प्रकृति की पराधीनता में रह कर जैसे नाचा करते हैं, वैसा न करके जो मनुष्य अपनी बुद्धि को इन्द्रिय-निग्रह के द्वारा स्थिर एवं शुद्ध रखता है और सृष्टिक्रम के अनुसार अपने हिस्से के (प्राप्त) कर्मों को केवल कर्तव्य समझ कर अनासक्त बुद्धि से एवं शांतिपूर्वक किया करता है, वही सच्चा विरक्त है, वही सच्चा स्थितिप्रज्ञ है और उसी के ब्रह्मपद पर पहुँचा हुआ कहना चाहिये [4]। यदि कोई ज्ञानी पुरुष किसी भी व्यावहारिक कर्म को न करके संन्यास ले कर जंगल में जा बैठे; तो इस प्रकार कर्मों को छोड़ देने से यह समझना बड़ी भूल है, कि उसके कर्मों का क्षय हो गया[5]। इस तत्व पर हमेशा ध्यान देना चाहिये, कि कोई कर्म करे या न करे, परन्तु उसके कर्मों का क्षय उसकी बुद्धि की साम्यावस्था के कारण होता है न कि कर्मों को छोड़ने से या न करने से कर्म-क्षय का सच्चा स्वरूप दिखलाने के लिये यह उदाहरण दिया जाता है, कि जिस तरह अग्नि से लकड़ी जल जाती है उसी तरह ज्ञान से सब कर्म भस्म हो जाते हैं; परन्तु इसके बदले उपनिषद और गीता में दिया गया यह दृष्टान्त अधिक समर्पक है, कि जिस तरह कमलपत्र पानी में रह कर भी पानी से अलिप्त रहता है, उसी तरह ज्ञानी पुरुष को–अर्थात ब्रह्मापर्ण करके अथवा आसक्ति छोड़ कर कर्म करने वाले को– कर्मों का लेप नहीं होता[6]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.49-51
- ↑ मैत्र्यु.6.34; अमृतबिन्दु.2
- ↑ गी. 6.1
- ↑ गी.3.7; 4.21; 5.7-9; 18.11
- ↑ गी.3. 4
- ↑ छां.4.14.3; गी.5.10
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