गीता रहस्य -तिलक पृ. 276

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

प्राक्‍तन संस्‍कार के कारण ऐसा मालूम होता है कि प्रकृति की गांठ हम से इस जन्‍म में आज नहीं छूट सकती; परन्‍तु वही बन्‍धन क्रम क्रम से बढ़ने वाले कर्मयोग के अभ्‍यास से कल या दूसरे जन्‍मों में आप ही आप ढीला हो जाता है, और ऐसा होते होते “बहूनां जन्‍मनामन्‍ते ज्ञानवान्‍मां प्रपद्यते”[1] –कभी न कभी पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होने से प्रकृति की गांठ या पराधीनता छूट जाती है एवं आत्‍मा अपने मूल की पूर्ण निर्गुण मुक्‍तावस्‍था को अर्थात मोक्ष-दशा को पहुँच जाता है। मनुष्‍य क्‍या नहीं कर सकता है। जो यह कहावत प्रचलित है कि “नर करनी करे तो नर से नारायण होय” वह वेदान्‍त के उक्‍त सिद्धान्‍त का ही अनुवाद है; और इसी लिये योगवासिष्‍ठकार ने मुमुक्षु प्रकरण में उद्योग की खूब प्रशंसा की है तथा असन्दिग्‍ध रीति से कहा है कि अन्‍त में सब कुछ उद्योग से ही मिलता है[2]। यह सिद्ध हो चुका कि ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्‍न करने के लिये जीवात्‍मा मूल में स्‍वतंत्र है और स्‍वावलम्‍बनपूर्वक दीर्घोद्योग से उसे कभी न कभी प्राक्‍तन कर्म के पंजे से छुटकारा मिल ही जाता है। अब थोड़ा सा इस बात का स्‍पष्टिकरण और हो जाना चाहिये, कि कर्म-क्षय किसे कहते हैं और वह कब होता है।

कर्म-क्षय का अर्थ है–सब कर्मों के बन्‍धनों से पूर्ण अर्थात नि:शेष मुक्ति होना। परन्‍तु पहले कह आये हैं कि कोई पुरुष ज्ञानी भी हो जाय तथापि जब तक शरीर है तब तक सोना, बैठना, भूख, प्‍यास इत्‍यादि कर्म छूट नहीं सकते, और प्रारब्‍ध कर्म का भी बिना भोगे क्षय नहीं होता, इसलिये वह आग्रह से देह का त्‍याग नहीं कर सकता। इसमें सन्‍देह नहीं कि ज्ञान होने के पूर्व किये गये सब कर्मों का नाश ज्ञान होने पर हो जाता है; परन्‍तु जबकि ज्ञानी पुरुष को यावजीवन ज्ञानोत्तर काल में भी कुछ न कुछ कर्म करना ही पड़ता है, तब ऐसे कर्मों से उसका छुटकारा कैसे होगा। और, यदि छुटकारा न हो तो यह शंका उत्‍पन्‍न्‍ा होती है कि फिर पूर्वकर्म-क्षय या आगे मोक्ष भी होगा। इस पर वेदान्‍तशास्‍त्र का उत्तर यह है, कि ज्ञानी मनुष्‍य की नाम-रूपात्‍मक देह को नाम-रूपात्‍मक कर्मों से यद्यपि कभी छुटकारा नहीं मिल सकता, तथापि इन कर्मों के फलों को अपने ऊपर लाद लेने या न लेने में आत्‍मा पूर्ण रीति से स्‍वतंत्र है; इसलिये यदि इन्द्रियों पर विजय प्राप्‍त करके कर्म के विषय में प्राणिमात्र की जो आसक्ति होती है केवल उसका ही क्षय किया जाय, तो ज्ञानी मनुष्‍य कर्म करके भी उसके फल का भागी नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 7.19
  2. यो. 2. 4. 10-18

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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