गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
परब्रह्म की जिस अज्ञेयता का वर्णन किया जाता है वह ज्ञाता और ज्ञेयवाली द्वैती स्थिति की है, अद्वैत साक्षात्कार वाली स्थिति की नहीं। जब तक यह बुद्धि नहीं है कि मैं अलग हूँ और दुनिया अलग है, तब तक कुछ भी क्यों न किया जाय, ब्रह्मात्मैक्य का पूरा ज्ञान होना सम्भव नहीं है। किन्तु नदी यदि समुद्र को निगल नहीं सकती— उसको अपने में लीन नहीं कर सकती तो जिस प्रकार समुद्र में गिरकर नहीं तदूप हो जाती है, उसी प्रकार परब्रह्म में निमग्र होने से मनुष्य को उसका अनुभव हो जाया करता है और फिर उसकी ऐसी ब्रह्ममय स्थिति हो जाती है कि “सवभूतस्थ मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि”[1]- सारे प्राणी मुझमें हैं और मैं सबमें हूँ। केन उपनिषद में बड़ी खूबी के साथ परब्रह्म के स्वरूप का विरोधाभासात्मक वर्णन इस अर्थ को व्यक्त करने के लिये किया गया कि पूर्ण परब्रह्म का ज्ञान केवल अपने अनुभव पर ही निर्भर है। यह वर्णन इस प्रकार है “अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्”[2] जो कहते हैं कि हमें परब्रह्म का ज्ञान हो गया, उन्हें उसका ज्ञान नहीं हुआ है। और जिन्हें जान ही नहीं पड़ता कि हमने उसको जान लिया, उन्हें ही वह ज्ञात हो जाता है। क्योंकि जब कोई कहता है कि मैंने परमेश्वर को जान लिया, तब उसके मन में यह द्वैत बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि मैं (ज्ञाता) जुदा हूँ और जिसे मैंने जान लिया, वह (ज्ञेय) ब्रह्म अलग है, अतएव उसका ब्रह्मात्मैक्यरूपी अद्वैती अनुभव उस समय उतना ही कच्चा और अपूर्ण होता है। फलतः उसी के मुहं से सिद्ध होता है कि कहने वाले को सच्चे ब्रह्म का ज्ञान हुआ नहीं है। इसके विपरीत मैं और ब्रह्म का द्वैती भेद मिट जाने पर ब्रह्मात्मैक्य का जब पूर्ण अनुभव होता है, जब उसके मुंह से ऐसी भाषा का निकलना ही सम्भव नहीं रहता कि मैंने उसे (अर्थात अपने से भिन्न और कुछ) जान लिया। अतएव इस स्थिति में, अर्थात जब कोई ज्ञानी पुरुष यह बतलाने में असमर्थ होता है कि मैं ब्रह्म को जान गया, तब कहना पड़ता है कि उसे ब्रह्म का ज्ञान हो गया। इस प्रकार द्वैत का बिल्कुल लोप होकर परब्रह्म में ज्ञाता का सर्वथा रंग जाना, लय पा लेना, बिल्कुल घुल जाना, अथवा एक जी हो जाना सामान्य रूप में दिख तो दुष्कर पड़ता है, परन्तु हमारे शास्त्रकारों ने अनुभव से निश्चय किया है कि एकाएक दुर्घट प्रतीत होने वाली ‘निर्वाण’ स्थिति अभ्यास और वैराग्य से अन्त में मनुष्य को साध्य हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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