गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
मैं-पनरूपी द्वैत भाव इस स्थिति में डूब जाता है, नष्ट हो जाता है; अतएव कुछ लोग शंका किया करते हैं कि यह तो फिर आत्मनाश का ही एक तरीका है। किन्तु ज्योंही समझ में आया कि यद्यपि इस स्थिति का अनुभव करते समय इसका वर्णन करते नहीं बनता है, परन्तु पीछे से उसका स्मरण हो सकता है, त्योंही उक्त शंका निर्मूल हो जाती है[1]। इसकी अपेक्षा और भी अधिक प्रबल प्रमाण साधु-सन्तों का अनुभव है। बहुत प्राचीन सिद्ध पुरुषों के अनुभव की बातें पुरानी हैं, उन्हें जाने दीजिये, बिल्कुल अभी के प्रसिद्ध भगवद्भक्त तुकाराम महराज ने भी इस परमावधि की स्थिति का वर्णन आलंकारिक भाषा में बड़ी खूबी से धन्यतापूर्वक इस प्रकार किया है कि हमने अपनी मृत्यु अपनी आंखों देख ली, यह भी एक उत्सव हो गया। व्यक्त अथवा अव्यक्त सगुण ब्रह्म की उपासना से ध्यान के द्वारा धीरे धीरे बढ़ता हुआ उपासक अन्त में “अहं ब्रह्मास्मि”[2]-मैं ही ब्रह्म हूं- की स्थिति में जा पहुँचता है, और ब्रह्मात्मैक्य स्थिति का उसे साक्षात्कार होने लगता है। फिर उसमें वह इतना मगन हो जाता है कि इस बात की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता कि मैं किस स्थिति में हूँ अथवा किसका अनुभव कर रहा हूँ। इसमें जागृति बनी रहती है, अतः इस अवस्था को न तो स्वप्न कह सकते हैं और न सुषुप्ति; यदि जागृत कहें तो, इसमें वे सब व्यवहार रुक जाते हैं कि जो जागृत अवस्था में सामान्य रीति से हुआ करते हैंं। इसलिये स्वप्न सुषुप्ति (नींद) अथवा जागृति— इन तीनों व्यावहारिक अवस्थाओं से बिल्कुल भिन्न इसे चौथी अथवा तुरीय अवस्था शास्त्रों ने कहा है, इस स्थित को प्राप्त करने के लिये पातञ्जलयोग की दृष्टि से मुख्य साधन निर्विकल्प समाधिक योग लगाना है कि जिसमें द्वैत का जरासा भी लवलेश नहीं रहता। और यही कारण है जो गीता[3] में कहा है इस निर्विकल्प समाधिक योग को अभ्यास से प्राप्त कर लेने में मनुष्य को उकताना नहीं चाहिये। यही ब्रह्मात्मैक्य स्थिति ज्ञान की पूर्ण अवस्था है। क्योंकि जब सम्पूर्ण जगत ब्रह्मरूप अर्थात एक ही हो चुका तब गीता के ज्ञान क्रिया वाले इस लक्ष्ण की पूर्णता हो जाती है, कि “अविभक्तं विभक्तेषु” अनेकत्व की एकता करना चाहिए और फिर इसके आगे किसी को भी अधिक ज्ञान हो नहीं सकता। इस प्रकार नाम रूप से पर इस अमृतत्व का जहाँ मनुष्य को अनुभव हुआ कि जन्म मरण का चक्कर भी आप ही से कट जाता है। क्योंकि जन्म मरण तो नाम रूप में ही हैं, और यह मनुष्य पहुँच जाता है उन नाम-रूपों से परे[4]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ध्यान से और समाधि से प्राप्त होने वाली अद्वैत की अथवा अभेदभाव की यह अवस्था nitrous-oxide gas नामक एक प्रकार की रासायनिक वायु को सूंघने से भी प्राप्त हो जाया करती है। इसी वायु को ‘लाफिंग गैस भी कहते हैं। Will to Believe and Other Essays on Popular Philosophy. By William James, pp. 294. 298 परन्तु यह नकली अवस्था है। समाधि से जो अवस्था प्राप्त होती है, वह सच्ची- असली- है यही इन दोनों में महत्त्व का भेद है। फिर भी यहाँ इसका उल्लेख हमने इसलिये किया है कि इस कृत्रिम अवस्था के हवाले से अभेदावस्था के अस्तित्व के विषय में कुछ भी वाद नही रह जाता।
- ↑ बृ. 1.4.10
- ↑ 6.20.23
- ↑ गी.8.21
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज