गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
इसी कारण से याज्ञवल्क्य ने बृहदारणयक[1] में इस परमावधि की स्थिति का वर्णन यों किया है- यत्र ही द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्चति... जिघ्रति... श्रृणोति... विजानाति। ...यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत तत्केन कं पश्येत... जिघ्रेत् ... श्रणुयात्... विजानीयात्। ...विज्ञातारमरे केन विजानीयात्। एतावदरे खलु अमृतत्त्वमिति;’’ इसका भावार्थ यह है कि ‘‘देखने वाला (द्रष्टा) और देखने का पदार्थ जब तक बना हुआ था, तब तक एक दूसरे को दखता या, सूंधता था, सुनता था और जानता था, परन्तु जब सभी आत्ममय हो गया (अर्थात् अपना और पराया भेद ही न रहा) तब कौन किसको देखेगा, सूंघेगा, सुनेगा और जानेगा? अरे! जो स्वयं ज्ञाता जानने वाला है, उसी को जानने वाला और दूसरा कहाँ से लाओंगे?’’ इस प्रकार सभी आात्मभूत या ब्रह्मभूत हो जाने पर वहाँ भक्ति, शोक अथवा सुख दुख आदि द्वन्द्व भी रह कहाँ सकते हैं (ईष. 7)? क्योंकि जिससे डरना है या जिसका शोक करना है, वह तो अपने से— हम से— जुदा होना चाहिए, और ब्रह्मात्मैक्य का अनुभव हो जाने पर इस प्रकार की किसी भी भिन्नता को अवकाश ही नहीं मिलता। इसी दुख-शोक- विरहित अवस्था को आन्नदमय नाम दे कर तैतिरीय उपनिषद[2] में कहा है कि यह आनन्द ही ब्रह्म है। किन्तु यह वर्णन भी गौण ही है। क्योंकि आनन्द का अनुभव करने वाला अब रही कहाँ जाता है? अतएव बृहदारणयक उपनिषद्[3] में कहा है कि लौकिक आनन्द की अपेक्षा आत्मानन्द कुछ विलक्षण होता है। ब्रह्म के वर्णन में जो ‘आनन्द’ शब्द आया करता है, उसकी गौणता पर ध्यान देकर ही अन्य स्थानों में ब्रह्मवेत्ता पुरुष का अन्तिम वर्णन (आन्नद शब्द को निकाल बाहर कर) इतना ही किया जाता है कि “ब्रह्म भवति य एवं वेद”[4] अथवा “ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति” [5] - जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म ही हो गया। उपनिषदों[6] में इस स्थिति के लिये यह दृष्टान्त दिया गया है कि नमक की ढली जब पानी में घुल जाती है तब जिस प्रकार यह भेद नहीं रहता कि इतना भाग खारे पानी का और इतना भाग मामूली पानी का है, उसी प्राकर ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान हो जाने पर सब ब्रह्ममय हो जाता है किन्तु उन श्री तुकाराम महाराज ने, कि ‘जिनकी कहे नित्य वेदान्त वाणी’, इस खारे पानी के दृष्टान्त के बदले गुड़ का यह मीठा दृष्टान्त देकर अपने अनुभव का वर्णन किया है - ‘गूंगे का गुड़’ है भगवान, बाहर भीतर एक समान। इसीलिये कहा जाता है कि परब्रह्म इन्द्रियों को अगोचर और मन को भी अगम्य होने पर भी स्वानुभवगम्य है अर्थात अपने-अपने अनुभव से जाना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज