गीता रहस्य -तिलक पृ. 17

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

इन भिन्न-भिन्न तात्पर्यों को देखकर कोई भी मनुष्य घबड़ाकर सहज ही यह प्रश्न कर सकता है- क्या ऐसे परस्पर- विरोधी अनेक तात्पर्य एक ही गीता ग्रंथ से निकल सकते है? और यदि निकल सकते है तो इस भिन्नता का हेतु क्या है? इसमें संदेह नहीं कि भिन्न-भिन्न भाष्यों के आचार्य, बड़े विद्वान, धार्मिक और सुशील थे। यदि कहा जाय कि शंकराचार्य के समान महातत्त्व ज्ञानी आज तक संसार में कोई भी नहीं हुआ है तो भी अतिशयोक्ति न होगी। तब फिर इनमें और इनके बाद के आचार्यों में इतना मतभेद क्यों हुआ? गीता कोई इन्द्रजाल नहीं है कि जिससे मनमाना अर्थ निकाल लिया जावे। उपर्युक्त संप्रदायों के जन्म के पहले ही गीता बन चुकी थी।

भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश इसलिये दिया था कि उसका भ्रम दूर हो, कुछ इसलिये नहीं कि उसका भ्रम और भी बढ़ जाय। गीता में एक ही विशेष और निश्चित अर्थ का उपदेश किया गया है[1] और अर्जुन पर उस उपदेश का अपेक्षित परिणाम भी हुआ है। इतना सब कुछ होने पर भी गीता के तात्पर्य अर्थ के विषय में इतनी गड़बड़ क्यों हो रही है। यह प्रश्न कठिन है सही, परन्तु इसका उतर उतना कठिन नही है जितना पहले पहल मालूम पड़ता है। उदाहरणार्थ, एक मीठे और सुरस पक्वान मिठाई को देखकर, अपनी अपनी रुचि के अनुसार, किसी ने उसे गेहुं का, किसी ने घी का, और किसी ने शक्कर का बना हुआ बतलाया; तो हम उनमें से किसको झूठ समझें? अपने अपने मतानुसार तीनों का कहना ठीक है। इतना होने पर भी इस प्रश्न का निर्णय नहीं हुआ कि वह पक्वान (मिठाई) बना किस चीज से है। गेहुँ, घी और शक्कर से अनेक प्रकार के पक्वान (मिठाई) बन सकते है; परन्तु प्रस्तुत पक्वान का निर्णय केवल इतना कहने से ही नहीं हो सकता कि वह गोधूम प्रधान, धृतप्रधान या शर्कराप्रधान है। समुद्र-मंथन के समय किसी को अमृत, किसी को विष, किसी को लक्ष्मी, ऐरावत, कौस्तुभ, पारिजात, आदि भिन्न-भिन्न पदार्थ मिले; परन्तु इतने ही से समुद्र के यथार्थ स्वरूप का कुछ निर्णय नहीं हो गया। ठीक इसी तरह, सांप्रदायिक रीति से गीतासागर को मथने वाले टीकाकारों की अवस्था हो गई है। दूसरा उदाहरण लीजिये।

कंसवध के समय भगवान श्रीकृष्ण जब रंग-मंडप में आये तब वे प्रेक्षकों को भिन्न-भिन्न स्वरूप के- जैसे योद्धा को वर्ज-सहश, स्त्रियों को कामदेव- सदृश, अपने माता-पिता को पुत्र-सदृश दिखने लगे थे; इसी तरह गीता के एक होने पर भी वह भिन्न-भिन्न संप्रदायों वालों को भिन्न-भिन्न स्वरूप में दिखने लगी है। आप किसी भी संप्रदाय को लें, यह बात स्पष्ट मालूम हो जायगी कि, उसको सामान्यतः प्रमाणभूत धर्म ग्रंथों का अनुसरण ही करना पड़ता है; क्योंकि ऐसा न करने से वह संप्रदाय सब लोगों की दृष्टि में अमान्य हो जायेगा। इसलिये वैदिक धर्म में अनेक संप्रदायों के होने पर भी, कुछ विशेष बातों को छोड़- जैसे ईश्वर, जीव और जगत का परस्पर सम्बन्ध-शेष सब बातें सब संप्रदायों में प्रायः एक ही सी होती हैं। इसी का परिणाम यह देख पड़ता है कि हमारे धर्म के प्रमाणभूत ग्रंथों पर जो सांप्रदायिक भाष्य या टीकाएँ है उनमें, मूलग्रंथों के फीसदी नब्बे से भी अधिक वचनों या श्लोकों का भावार्थ, एक ही सा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 5.1.2

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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