गीता रहस्य -तिलक पृ. 16

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

श्रीधरस्वामी ने भी गीता की अपनी टीका[1] में गीता का ऐसा ही तात्पर्य निकाला है। मराठी भाषा में, इस संप्रदाय का गीता संबंधी सर्वोत्तम ग्रंथ 'ज्ञानेश्वरी' है। इसमें कहा गया है कि गीता के प्रथम छः अध्यायों में कर्म, बीच के छः अध्यायों में भक्ति और अंतिम छः अध्यायों में ज्ञान का प्रतिपादन किया गया है; और स्वयं ज्ञानेश्वर महाराज ने अपने ग्रंथ के अंत में कहा है कि मैंने गीता की यह टीका शंकाराचार्य के भाष्यानुसार की है। परन्तु ज्ञानेश्वरी को इस कारण से एक बिलकुल स्वतंत्र ग्रंथ ही मानना चाहिये कि इसमें गीता का मूल अर्थ बहुत बढ़ाकर अनेक सरस दृष्टान्तों से समझाया गया है और इसमें विशेष करके भक्तिमार्ग का तथा कुछ अंश में निष्काम कर्म का श्रीशंकराचार्य [2] से भी उत्तम, विवेचन किया गया है।

ज्ञानेश्वर महाराज स्वयं योगी थे, इसलिये गीता के छठवें अध्याय के जिस शंक में पातंजाल योगाभ्यास का विषय आया है उसकी उन्होंने विस्तृत टीका की है। उनका कहना है कि श्रीकृष्ण भगवान ने इस अध्याय के अंत[3] में अर्जुन को यह उपदेश करके कि "तस्माद्योगीभवार्जुन" - इसलिये हे अर्जुन! तू योगी हो अर्थात योगाभ्यास में प्रवीण हो- अपना यह अभिप्राय प्रगट किया है कि सब मोक्ष पंथों में पातंजल योग ही सर्वोत्तम है और इसलिये आपने उसे 'पंथराज' कहा है। सारांश यह है कि भिन्न-भिन्न सांप्रदायिक भाष्यकारों और टीकाकारों ने गीता का अर्थ अपने अपने मतों के अनुकूल ही निश्चित कर लिया है।

प्रत्येक संप्रदाय का यही कथन है कि गीता का प्रवृति विषयक कर्म मार्ग अप्रधान (गौण) है अर्थात केवल ज्ञान का साधन है; गीता में वही तत्त्वज्ञान पाया जाता है। जो अपने संप्रदाय में स्वीकृत हुआ है; अपने संप्रदाय में मोक्ष की दृष्टि से जो आचार अंतिम कर्तव्य माने गये हैं उन्हीं का वर्णन गीता में किया गया है,- अर्थात मायावादात्मक अद्वैत और कर्म-संन्यास, माया- सत्यत्व- प्रतिपादक विशिष्टाद्वैत और वासुदेव- भक्ति, द्वैत और विष्णुभक्ति, शुद्धाद्वैत और भक्ति, शंकराद्वैत और भक्ति, पातजंल योग और केवल भक्ति, केवल योग या केवल ब्रह्मज्ञान (अनेक प्रकार के निवृति विषयक मोक्ष धर्म) ही गीता के प्रधान तथा प्रतिपादय विषय है [4]। हमारा ही नहीं, किन्तु प्रसिद्ध कवि वामन पंडित का भी मत ऐसा ही है। गीता पर आपने 'यथार्थदीपिका' नामक विस्तृत मराठी टीका लिखी है। उसके उपोदघात में ये पहले लिखते हैः- "हे भगवान! सब लोगों ने किसी न किसी बहाने से गीता का मनमाना अर्थ किया है, परन्तु इन लोगों का किया हुआ अर्थ मुझे पसन्द नहीं। भगवन! मैं क्या करू!"

अनेक सांप्रदायिक टीकाकारों के मत की इस भिन्नता को देखकर कुछ लोग कहते हैं कि, जबकि ये सब मोक्ष-संप्रदाय परस्पर-विरोधी हैं और जबकि इस बात का निश्चय नहीं किया जा सकता कि इनमें से कोई एक ही संप्रदाय गीता में प्रतिपादित किया गया है; तब तो यही मानना उचित है कि इन सब मोक्ष-साधनों का विशेषतः कर्म, भक्ति और ज्ञान का वर्णन स्वतंत्र रीति से, संक्षेप में और पृथक-पृथक करके भगवान ने अर्जुन का समाधान किया है। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष के अनेक उपायों का यह सब वर्णन पृथक-पृथक नहीं है, किन्तु इन सब की एकता ही गीता में सिद्ध की गई है। और, अंत में, कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि गीता में प्रतिपादित ब्रह्मविद्या यद्यपि मामूली ढंग पर देखने से सुलभ मालूम होती है, तथापि उसका वास्तविक मर्म अत्यंत गूढ़ है जो बिना गुरु के किसी की भी समझ में नहीं आ सकता[5]- गीता पर भले ही अनेक टीकाएं हो जायें, परन्तु उसका गूढ़ार्थ जानने के लिये गुरुदीक्षा के सिवा और कोई उपाय नहीं है। अब यह बात स्पष्ट है कि गीता के अनेक प्रकार के तात्पर्य कहे गये हैं। पहले तो स्वयं महाभारतकार ने भागवत-धर्मानुसारी अर्थात प्रवृति विषय तात्पर्य बतलाया है। इसके बाद अनेक पंडित, आचार्य, कवि, योगी और भक्त-जनों ने अपने अपने संप्रदाय के अनुसार शुद्ध निवृति विषयक तात्पर्य बतलाया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.18.78
  2. गी. र. 3
  3. गी.6.46
  4. भिन्न भिन्न सांप्रदायिक आचार्यों के, गीता के भाष्य और मुख्य मुख्य पंद्रह टीका-ग्रंथ बम्बई के गुजराती प्रिंटिंग के मालिक ने, हाल ही में एकत्र प्रकाशित किये है।
    भिन्न-भिन्न टीकाकारों के अभिप्राय को एकदम जानने के लिये यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है।
  5. गी दृ 4.34

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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