गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण अध्याय- 2सांख्य-योग (31) स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयः अन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।। (31) श्रेयस्कर एक क्षत्रिय के हित में युद्ध सिवा न होता कुछ और है। स्व-धर्म विचार ही रख ध्यान में विकम्पित होना न पार्थ! अर्ह है।। टीका टिप्पणी और संदर्भ संबंधित लेख गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या - गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1 - भूमिका 66 - महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115 - श्री गणेश वन्दना 122 1. अर्जुन विषाद-योग 126 2. सांख्य-योग 171 3. कर्म-योग 284 4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370 5. कर्म-संन्यास योग 474 6. आत्म-संयम-योग 507 7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569 8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607 9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653 10. विभूति-योग 697 11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752 12. भक्ति-योग 810 13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841 14. गुणत्रय-विभाग-योग 883 15. पुरुषोत्तम-योग 918 16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947 17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982 18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016 अंतिम पृष्ठ 1142 वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ऋ ॠ ऑ श्र अः