गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
महावीर स्वामी वासना व कामनाओं के विजेता होने के कारण “जिन” उपाधि से विभूषित किये गये थे। इस उपाधि के कारण ही महावीर का उपदेश “जिनोपदेश” कहलाने लगा और उस उपदेश के मानने वाले “जैन” कहलाने लगे। ऋषभदेव से 23 वें आचार्य पार्श्वनाथ तक समस्त आचार्य कपिल मतावलम्बी थे, किन्तु महावीर स्वामी के समय से इनका नाम जैन हो गया, और ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर मानकर महावीर स्वामी को 24 वां तीर्थकर माना जाने लगा महावीर स्वामी के पश्चात् कोई तीर्थंकर नहीं हुआ। महावीर स्वामी के प्रयास से तथा राजा बिम्बसार व अजातशत्रु के संरक्षण से महावीर स्वामी का तथाकथित जैन मत प्रारम्भ में खूब फैला परन्तु कुछ समय बाद इसका विकास रुक गया। मौर्यकाल में जैन धर्म दो भागों में विभक्त हो गया, एक वर्ग श्वेताम्बर कहलाने लगा, दूसरा वर्ग दिगम्बर कहलाने लगा। इस प्रकार स्वयं जैन धर्म के अनुयायियों में फूट व अविश्वास पैदा हो गया। धर्म प्रचारकों में उत्साह नहीं रहा, आत्म-संयम व तपस्या के स्थान में विषय वासनाओं ने स्थान ग्रहण कर लिया। इसी समय बौद्ध धर्म का और वैदिक धर्म का प्रसार भी हुआ जिसके कारण जैन धर्म का विकास रुक गया। और आज इस मत के अनुयायियों की संख्या केवल 14,00,000 लगभग होना अनुमान किया जाता है। जैन धर्म के प्रामाणिक धर्म-ग्रन्थ “अभिनव पुराण”, रत्नसार भाग, प्रकरण-रत्नाकर, विवेक-सार, इतिहास तिमिर नाशक, आर्हत प्रवचन संग्रह, तत्त्व-विवेक, तत्त्वार्थ सूत्र, आदि अनेकानेक ग्रन्थ हैं। इन समस्त धर्म-ग्रन्थों में मूल-भूत धार्मिक सिद्धान्त श्रीमद्भागवत गीता के सिद्धान्तों के बाहर नहीं है उन्हीं पर आधारित है केवल रूपान्तर तथा व्यावहारिक भेद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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