गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1115

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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कामना त्याग से, अनसक्त भावना से कर्माचरण करने से, ब्रह्म-रूप कर्म में समाधिस्थ होने से, परम ब्रह्म परमेश्वर को अभिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ मानकर निरन्तर भगवत भजन करने से तथा समस्त कर्मों को ईश्वरार्पण कर संन्यास-योग-युक्त होने से; क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान, होने से, भक्ति-मार्ग से, त्रिगुणातीत होने से, पुरुष का योग अर्थात मेल या एकीकरण परम ब्रह्म परमेश्वर से हो जाता है। गीता में कर्म-योग, संन्यास तथा भक्ति-मार्ग का परस्पर योग करके यह समझाया है कि अनासक्त भाव व निष्काम-बुद्धि से समस्त कर्मों को ब्रह्मार्पण भाव से करने से पुरुष व परमेश्वर का योग अर्थात पुरुष परमेश्वर में मिल जाता है वह परमेश्वर मय हो जाता है। ब्रह्ममय होने के साधन व उपाय साम्य-बुद्धि, ज्ञान, आत्म-संयम, ध्यान, भक्ति आदि का होना बताया गया है इस ही कारण इन समस्त साधनों को गीता में “योग” कहा गया है।

उर्ध्व वर्णित व्याख्या से स्पष्ट है कि चित्त की प्रवृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त वृत्तियों का निरोध करने के साधन व उपाय पातञजलि-योग-दर्शन में आठ प्रकार के बताए गए हैं जो इस प्रकार हैः-

“यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यानसमाधयोऽष्टाबंगनि।”

अर्थात्- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह आठ योग के अंग हैं जो अष्टांग कहलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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