गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
भगवान कृष्ण ने कर्म-योग-मार्ग को भी अध्याय 4 श्लोक 1 में ज्ञान-कर्म-योग कहा है और इस मार्ग को अव्यय[1]कहा है। सांख्य-शास्त्र में संन्यास का जो अर्थ कर्म का स्वरूपतः त्याग करना समझा जाता है उसे सही न बताते हुए भगवान कृष्ण ने कहा है कि बिना कर्म किए कोई रह नहीं सकता प्रकृतिज गुणों से विवश होकर प्राणी मात्र को कर्म करने ही पड़ते हैं। यह अध्याय 3 श्लोक 4 व 5 में कहा गया है। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म से होने के कारण कर्म को प्रधानता दी है। अध्याय 5 श्लोक 4 व 5 में सांख्य के कर्म-संन्यास का व कर्म-योग-मार्ग के अनासक्त-योग का तुलनात्मक विवेचन करके यही समझाया है कि सांख्य-शास्त्र में व कर्म-योग-मार्ग में कोई भेद नहीं है जो सांख्य-शास्त्र में कर्म-संन्यास कहा गया है वहीं कर्म-योग-मार्ग में अनासक्ति-योग है। कर्म कोई भी या कैसा भी हो वह ज्ञान व बुद्धि-युक्त होना चाहिए जैसा कि अध्याय 4 श्लोक 18 में कर्म को अकर्म में परिवर्तित कर देना बताया गया है। सांख्य-शास्त्र द्वारा प्रतिपादित “गुणा गुणेषु वर्तन्ते” सिद्धान्त के तत्त्व को जानने वाला कर्म-योग-मार्ग के अनासक्त मार्ग का अवलम्बी होता है। इस ही सिद्धान्त का स्पष्टीकरण विस्तार से गीता में स्थान-स्थान पर करके अध्याय 18 के श्लोक 2 से 12 तक संन्यास और त्याग की व्याख्या करके अन्त में यहीं समझाया है कि सच्चा संन्यास[2] या संन्यासी[3] क्या और कौन होता है? सांख्य मत के संन्यास-मार्ग में जो अर्थ कर्म-संन्यास का है वही अर्थ कर्म-योग-मार्ग में फलेच्छ-विरहित निष्काम-कर्म का है। जो कर्म-फल-त्यागी होता है वही सांख्य की ज्ञान-निष्ठा का संन्यासी होता है। अतः आत्मनि, आत्मरत, आत्मतुष्टि होना, आत्मज्ञान व अध्यात्म-ज्ञान का होना; क्षर-अक्षर का ज्ञान होना; व्यक्त-अव्यक्त का ज्ञान होना; क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान होना; प्रकृति के गुणत्रय का ज्ञान होना गीता में ज्ञान-निष्ठा के अर्थ में व्यापक रूप से कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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