गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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(49)
असक्त बुद्धि: सर्वत्र
जितात्मा विगतस्पृह: ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां
सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥
सर्वत्र अनासक्त-बुद्धि ही
स्पृहा-हीन विजितात्म ही।
करता प्राप्त संन्यास[1] से भी
परम नैष्कर्म-सिद्धि[2]ही।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संन्यास (त्याग) के द्वारा, जो कापिल सांख्य शास्त्र द्वारा प्रतिपादित किया गया है
- ↑ निष्काम व फलाशा विरहित सिद्धि
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