गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1095

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 45 से 49 का भावार्थ।।

श्लोक 40 से 45 में उपदिष्ट किया गया है की प्रकृति-जन्य-गुण व स्वभाव के अनुसार जो करणीय कर्म चतुर्वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के निर्धारित व नियत किए गए हैं वह प्रत्येक वर्ण के लिए स्वधर्म रूपी कर्तव्य कर्म हैं; इन नियत कर्मों को करना ही उचित तथा श्रेयस्कर है। यह उपदेश देने के पश्चात भगवान कृष्ण [1] यह समझाते हैं कि चतुर्वर्ण व्यवस्था द्वारा निर्धारित कर्मों को कर्म-योग-मार्ग का अनुपालन करते हुए निष्काम-बुद्धि से परमेश्वर परायण होकर करते रहना चाहिए इससे सिद्धि प्राप्त हो जाती है और कर्म-सिद्धि प्राप्त करने का यहीं सर्वश्रेष्ठ उपाय है।

गीता में यह प्रतिपादित किया गया है कि भगवान कृष्ण ही सगुण व्यक्त रूप परमब्रह्म परमेश्वर हैं; यही परमब्रह्म परमेश्वर समस्त संसार के रचयिता, कर्त्ता, धर्ता, पालन-पोषण करने वाले, साधुजनों की रक्षा करने वाले तथा दुष्टों का संहार करने वाले हैं। इस कारण ही समय-समय पर अवतार लेकर लोक संग्रहार्थ कर्म करते हैं। इस प्रकार जब जगत-नियन्ता स्वयं परमेश्वर ही लोक संग्रह हित तथा जगत का धारण-पोषण करने को मानव-रूप में अवतार लेकर कर्म करते हैं तो उनके द्वारा विरचित मानव-सृष्टि को भी लोक संग्रह को ध्यान में रखकर चतुर्वर्ण व्यवस्था के अनुसार स्वकीय कर्मों को करना ही स्वधर्म-रूपी कर्तव्य है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोक 45 से 49 में
  2. अध्याय 3 श्लोक 20 से 24 व 31;- अध्याय 4 श्लोक 6 से 8; 12 व 12

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18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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