गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
राजस कर्मः- फल की इच्छा से आशापूर्वक काम्य-भावना से, स्वार्थ बुद्धि से अहंकारपूर्वक व आयास[1] से किया हुआ कर्म राजस-कर्म होता है। (1) मनुष्य में प्रकृति-जन्य सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों गुण स्वभावतः होते हैं; इन तीनों गुणों में जिस गुण की प्रबलता होती है उस गुण के अनुसार ही मनुष्य का स्वभाव होता है और वैसे ही उसके कर्म होते हैं। उन कर्मों के बन्धन से वह बद्ध रहता है और कर्म-बन्धन के अनुसार ही उसका जन्म होता है-[2], राजस कर्मों को आसुरी-कर्म कहा गया है। काम और क्रोध भाव से जो भी अना- चार, पाप या कुत्सित कर्म किये जाते हैं वह रजोगुण की प्रबलता से अभिभूत होकर किए जाते हैं इस कारण राजस-कर्म कहलाते हैं; [3] तामस कर्मः- भविष्य का विचार किए बिना अर्थात अनुबन्ध को विचारे बिना कर्म को करने में अपनी समर्थ तथा पौरुष को बिचारे बिना कि अमुक कर्म को वह कर भी सकता है या नहीं; तथा उसका परिणाम भी बिना विचारे कि उस कर्म के करने में क्षय, नाश या हिंसा होगी केवल मोह के कारण किए जाते हैं वह समस्त कर्म तामस कर्म होते हैं। तामस कर्म आसुरी या राक्षसी वृत्ति के लोग करते हैं।[4]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कठिन परिश्रम व क्लेश
- ↑ अध्याय 7 श्लोक 12 व 13; अध्याय 9 श्लोक 8; अध्याय 13 श्लोक 19 व 21; अध्याय 14 श्लोक 3, 5, 10, 12, 15 व 18; अध्याय 17 श्लोक 3।
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 37; अध्याय 7 श्लोक 15; अध्याय 16 श्लोक 4, 7, 10, 11, 12, 18, 19; अध्याय 17 श्लोक 5, 6, 12, 18, 21।
- ↑ अध्याय 9 श्लोक 12; अध्याय 14 श्लोक 13; अध्याय 17 श्लोक 13, 19, 22, अध्याय 16 श्लोक 7 से 18
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