गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1052

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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राजस कर्मः-

फल की इच्छा से आशापूर्वक काम्य-भावना से, स्वार्थ बुद्धि से अहंकारपूर्वक व आयास[1] से किया हुआ कर्म राजस-कर्म होता है।

(1) मनुष्य में प्रकृति-जन्य सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों गुण स्वभावतः होते हैं; इन तीनों गुणों में जिस गुण की प्रबलता होती है उस गुण के अनुसार ही मनुष्य का स्वभाव होता है और वैसे ही उसके कर्म होते हैं। उन कर्मों के बन्धन से वह बद्ध रहता है और कर्म-बन्धन के अनुसार ही उसका जन्म होता है-[2],

राजस कर्मों को आसुरी-कर्म कहा गया है। काम और क्रोध भाव से जो भी अना- चार, पाप या कुत्सित कर्म किये जाते हैं वह रजोगुण की प्रबलता से अभिभूत होकर किए जाते हैं इस कारण राजस-कर्म कहलाते हैं; [3]

तामस कर्मः-

भविष्य का विचार किए बिना अर्थात अनुबन्ध को विचारे बिना कर्म को करने में अपनी समर्थ तथा पौरुष को बिचारे बिना कि अमुक कर्म को वह कर भी सकता है या नहीं; तथा उसका परिणाम भी बिना विचारे कि उस कर्म के करने में क्षय, नाश या हिंसा होगी केवल मोह के कारण किए जाते हैं वह समस्त कर्म तामस कर्म होते हैं। तामस कर्म आसुरी या राक्षसी वृत्ति के लोग करते हैं।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कठिन परिश्रम व क्लेश
  2. अध्याय 7 श्लोक 12 व 13; अध्याय 9 श्लोक 8; अध्याय 13 श्लोक 19 व 21; अध्याय 14 श्लोक 3, 5, 10, 12, 15 व 18; अध्याय 17 श्लोक 3।
  3. अध्याय 3 श्लोक 37; अध्याय 7 श्लोक 15; अध्याय 16 श्लोक 4, 7, 10, 11, 12, 18, 19; अध्याय 17 श्लोक 5, 6, 12, 18, 21।
  4. अध्याय 9 श्लोक 12; अध्याय 14 श्लोक 13; अध्याय 17 श्लोक 13, 19, 22, अध्याय 16 श्लोक 7 से 18

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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