गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
मानव सृष्टि की और कर्म की उत्पत्ति एक साथ होने के कारण मनुष्य कर्म-संस्कार अपने जन्म के साथ लेकर पैदा होता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा निर्मित होने के कारण उसके कर्म भी प्रकृति के सत्त्व-रज-तम तीनों गुणों से प्रभावित व नियन्त्रित होते हैं; अतः प्रकृति-जन्य नित्य व नियमित कर्मों को करना ही पड़ता है जिन्हें किए बिना मानव ही नहीं अपितु जीवमात्र ही जो जन्म लेकर इस संसार रूपी कर्म-भूमि में जीवित रहना चाहता है उसे करने ही पड़ते हैं; कर्म किए बिना वह क्षण भर भी नहीं रह सकता। नैसर्गिक नित्य कर्मों के अतिरिक्त मनुष्य को सांसारिक कर्म समाज व्यवस्था के अनुसार तथा धर्म व शास्त्र व्यवस्था के अनुसार भी करने पड़ते हैं; यह जातीय, सामाजिक तथा धार्मिक कर्म कहलाते हैं। इन समस्त प्रकार के कर्मों को करने की विधि, रीति, चतुराई, कौशल तथा निपुणता होती है जिसे “कर्म कौशल” कहते हैं। इस कर्म कौशल से कर्म करने पर कर्म सात्त्विक-कर्म हो जाता है और कर्म करने का कौशल वही है जो कर्म-योगारूढ़ व्यक्ति ऊपर बताए गए अनासक्त, फलाशा-विरहित, निष्काम बुद्धि से करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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