गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1051

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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मानव सृष्टि की और कर्म की उत्पत्ति एक साथ होने के कारण मनुष्य कर्म-संस्कार अपने जन्म के साथ लेकर पैदा होता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा निर्मित होने के कारण उसके कर्म भी प्रकृति के सत्त्व-रज-तम तीनों गुणों से प्रभावित व नियन्त्रित होते हैं; अतः प्रकृति-जन्य नित्य व नियमित कर्मों को करना ही पड़ता है जिन्हें किए बिना मानव ही नहीं अपितु जीवमात्र ही जो जन्म लेकर इस संसार रूपी कर्म-भूमि में जीवित रहना चाहता है उसे करने ही पड़ते हैं; कर्म किए बिना वह क्षण भर भी नहीं रह सकता।

नैसर्गिक नित्य कर्मों के अतिरिक्त मनुष्य को सांसारिक कर्म समाज व्यवस्था के अनुसार तथा धर्म व शास्त्र व्यवस्था के अनुसार भी करने पड़ते हैं; यह जातीय, सामाजिक तथा धार्मिक कर्म कहलाते हैं। इन समस्त प्रकार के कर्मों को करने की विधि, रीति, चतुराई, कौशल तथा निपुणता होती है जिसे “कर्म कौशल” कहते हैं। इस कर्म कौशल से कर्म करने पर कर्म सात्त्विक-कर्म हो जाता है और कर्म करने का कौशल वही है जो कर्म-योगारूढ़ व्यक्ति ऊपर बताए गए अनासक्त, फलाशा-विरहित, निष्काम बुद्धि से करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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