गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1007

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-17
श्रद्धात्रय-विभाग-योग
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।। ओम् तत्सत् की व्याख्या।।
( 23)
ॐ तत्सदिति निर्देशो
ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत: ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च
यज्ञाश्च विहिता: पुरा ॥

ओंम्-तत्-सत् [1]त्रिविध नाम से
होते निर्दिष्ट[1] ब्रह्म नाम ही।
हुए विरचित ओम् तत्सत् से
वेद-ब्राह्मण[2]वा यज्ञ पुर-एव[3] ही।।

“ऊँ तत्सत्” -

ऊँ तत्सत् से ब्रह्म का ज्ञान होता है। अक्षर अविनाशि ब्रह्म को ॐ कहते हैं। सृष्टि के आदि में ब्रह्म ही था इस कारण समस्त क्रियाओं का आरम्भॐ से होता है। अध्याय 8 श्लोक 3 में ब्रह्म की व्याख्या) “तत्” - सर्वनाम संज्ञा का निर्देश “तत्” से होता है। तत् का अर्थ है “वह” अतः “तत्” उस कर्म को निर्दिष्ट करता है जो सामान्य कर्म से परे का है; यह ‘सात्त्विक कर्म” होता है। अतः “तत्” सात्त्विक-कर्म को निर्दिष्ट करता है। “सत्” वह वस्तु है जिसका अस्तित्व होता है और जो आँखों से दिखाई देती हैं; अतः यह समस्त व्यक्त सृष्टि “सत्” है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बोध होना
  2. ब्रह्मदेव रूप पहला ब्राह्मण: अथवा प्रत्येक वेद के अंग जो ब्राह्मण कहलाते हैं।
  3. पहले ही: आरम्भ में ही

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18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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