गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 45

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
23. संन्यासी और योगी एक ही: शुक-जनकवत्

26. इसलिए भगवान कहते हैं- एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति। संन्यास और योग में जो एकरूपता देखेगा, उसी ने वास्तविक रहस्य को समझा है। एक न करके करता है और दूसरा करके भी नहीं करता। जो सचमुच श्रेष्ठ संन्यासी है, जिसकी सदैव समाधि लगी रहती है, जो बिलकुल निर्विकार है, ऐसे संन्यासी पुरुष को दस दिन हमारे- आपके बीच आकर रहने दो। कितना प्रकाश, कितनी स्फूर्ति उससे मिलेगी! अनेक वर्षों तक काम का ढेर लगाकर भी जो नहीं हुआ होगा, वह केवल उसके दर्शन से- अस्तित्व मात्र से- हो जायेगा। फोटो देखकर यदि मन में पावनता उत्पन्न होती है, मृत लोगों के चित्रों से यदि भक्ति, प्रेम और पवित्रता हृदय में उत्पन्न होती है, तो जीवित संन्यासी को देखने से पता नहीं कितनी प्रेरणा प्राप्त होगी?

27. संन्यासी और योगी, दोनों भी लोकसंग्रह करते हैं। एक जगह बाहर से कर्मत्याग दिखायी दिया, तो भी उस कर्मत्याग में कर्म ठसाठस भरा हुआ है। उसमें अनन्त स्फूर्ति भरी हुई है। ज्ञानी संन्यासी, और ज्ञानी कर्मयोगी, दोनों एक ही सिंहासन पर बैठने वाले हैं। संज्ञा भिन्न-भिन्न होने पर भी अर्थ एक ही है। एक ही तत्त्व के ये दोनों पहलू या प्रकार हैं। यंत्र जब वेग से घूमता है, तो वह ऐसा दिखायी देता है मानो स्थिर है, घूम ही नहीं रहा। संन्यासी की भी स्थिति ऐसी ही होती है। उसकी शांति में से, स्थिरता में से अनंत शक्ति, अपार प्रेरणा मिलती है। महावीर, बुद्ध, निवृत्तिनाथ ऐसी ही विभूतियां थीं। संन्यासी के सभी उद्योगों की दौड़ एक आसन पर आकर स्थिर हो जाये, तो भी वह प्रचंड कर्म करता है। सारांश यह कि योगी ही संन्यासी है और संन्यासी ही योगी है। दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। शब्द अलग-अलग हैं, पर अर्थ एक ही है। जैसे पत्थर के मानी पाषाण और पाषाण मानी पत्थर हे, वैसे ही कर्मयोगी मानी संन्यासी और संन्यासी के मानी कर्मयोगी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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