गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 38

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
19 अकर्म का एक पहलू - योग

12. ‘संन्यास’ की कल्पना क्या है? कुछ कर्म छोड़ना, कुछ कर्म करना, यह कल्पना है क्या? नहीं। मूलतः संन्यास की व्याख्या ही है- "सब कर्मो को छोड़ना।" सब कर्मों से मुक्त होना, कर्म जरा भी न करना संन्यास है। परन्तु कर्म न करने का अर्थ क्या? कर्म बड़ी विचित्र वस्तु है। सर्व-कर्म-संन्यास होगा कैसे? कर्म तो आगे-पीछे, अगल-बगल, सब ओर व्याप्त हो रहा है। अजी, बैठे तो भी क्रिया ही हुई न? 'बैठना' यह क्रियापद है। केवल व्याकरण की दृष्टि से ही वह क्रिया नहीं हुई, परंतु सृष्टिशास्त्र में भी ‘बैठना’ क्रिया ही है। सतत बैठे रहने से पैर दुखने लगते हैं। बैठने में भी श्रम तो है ही। जहाँ न करना भी कर्म सिद्ध होता है वहाँ कर्म-संन्यास हो भी कैसे? भगवान ने अर्जुन को विश्वरूप दिखलाया। सर्वत्र फैला हुआ वह विश्वरूप देखकर अर्जुन डर गया और घबराकर उसे आंखे मूंद लीं। परन्तु आंखे मूंदकर देखा, तो वह भीतर भी दिखायी देने लगा। अब आंख मूंद लेने पर भी जो दीखता है, उससे कैसे बचा जाये? न करने से भी जो होता है, उसे कैसे टाला जाये?

13. एक मनुष्य की बात है। उसके पास सोने के अनेक बहुमूल्य गहने थे। वह उन्हें एक बड़े संदूक में बंद करके रखना चाहता था। नौकर एक खासा बड़ा-सा लोहे का संदूक बनवा लाया। उसे देखकर उसने कहा- "तू कैसा बेवकूफ है रे गंवार! तुझे सुंदरता की कोई कल्पना भी है क्या? ऐसे बेशकीमती जेवर रखने हैं, तो क्या भद्दे लोहे के संदूक में रखे जायेंगे? जा, अच्छा सोने का संदूक बनवाकर ला!" नौकर सोने का संदूक बनवा लाया। "अब ताला भी सोने का ही ले आ। सोने के संदूक में सोने का ही ताला फबेगा।" वह व्यक्ति गया था जेवर को छिपाने, उसे ढांककर रखने, लेकिन वह सोना छिपा या खुला? चोरों को जेवर खोजने की जरूरत ही नहीं रही। संदूक उड़ाया और काम बना। सारांश यह है कि कर्म न करना भी कर्म करने का ही एक प्रकार हो जाता है। इतना व्यापक जो कर्म है उसका संन्यास कैसे किया जाये?

14. ऐसे कर्मों का संन्यास करने की रीति ही यह है कि ऐसी युक्ति साधी जाये, जिससे दुनिया भर के कर्म करते हुए भी वे सब गल जायें। जब ऐसा हो सकेगा, तभी कह सकते हैं कि ‘संन्यास’ प्राप्त हुआ। कर्म करके भी उन सबका ‘गल जाना’ यह बात आखिर है कैसी? सूर्य के जैसी है। सूर्य रात-दिन कर्म कर रहा है। रात को भी वह कर्म करता ही है। उसका प्रकाश दूसरे गोलार्ध में काम करता रहता है। परन्तु इतना कर्म करते हुए भी ऐसा भी कहा जाता जा सकता है कि वह कुछ भी नहीं करता। इसीलिए चौथे अध्याय में भगवान कहते हैं, "मैंने यह योग पहले सूर्य को सिखाया। फिर विचार करने वाले, मनन करने वाले मनु ने सूर्य से इसे सीखा।" चौबीस घंटे कर्म करते हुए भी सूर्य लेशमात्र कर्म नहीं करता। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह स्थिति सचमुच अद्भुत है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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