तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव
22. जब तक देहस्थित आत्मा का विचार नहीं आता, तब तक मनुष्य साधारण क्रियाओं में ही तल्लीन रहता है। भूख लगी तो खा लिया, प्यास लगी तो पानी पी लिया, नींद आयी तो सो गये। इससे अधिक वह कुछ नहीं जानता। इन्हीं बातों के लिए वह लड़ेगा, इन्हीं की प्राप्ति का लोभ मन में रखेगा। इस तरह इन दैहिक क्रियाओं में ही वह मग्न रहता है। विकास का आरंभ तो इसके बाद होता है। इस समय तक आत्मा सिर्फ देखती रहती है। मां जिस तरह कुएं की ओर रेंगते जाने वाले बच्चे के पीछे सतत सतर्क खड़ी रहती है, उसी प्रकार आत्मा हम पर निगाह रखे खड़ी रहती है। शांति के साथ वह सब क्रियाओं को देखती है। इस स्थिति को ‘उपद्रष्टा’- साक्षी रूप से सब देखने वाला कहा है। 23. इस अवस्था में आत्मा देखती है, परंतु अभी वह सम्मति नहीं देती। परंतु यह जीव, जो अब तक अपने को देहरूप समझकर सब क्रिया, सब व्यवहार, करता है, वह आगे चलकर जागता है। उसे भान होता है कि अरे, मैं पशु की तरह जीवन बिता रहा हूँ। जीव जब इस तरह विचार करने लगता है तब उसकी नैतिक भूमिका शुरू होती है। तब पग-पग पर वह उचित-अनुचित का विचार करता है। विवेक से काम लेने लगता है। उसकी विश्लेषण-बुद्धि जाग्रत होती है। स्वैर क्रियाएं रुकती हैं। स्वच्छंदता की जगह संयम आता है। 24. जब जीव इस नैतिक भूमिका में आता है, तब आत्मा केवल चुप बैठकर नहीं देखती, वह भीतर से अनुमोदन करती है। ‘शाबाश’ ऐसी धन्यता की आवाज अंदर से आती है। अब आत्मा केवल ‘उपद्रष्टा’ न रहकर ‘अनुमंता’ बन जाती है। कोई भूखा अतिथि द्वार पर आ जाये, आप अपनी परोसी थाली उसे दे दें और फिर रात को अपनी इस सत्कृति का स्मरण हो, तो देखिए मन को कितना आनंद होता है! भीतर से आत्मा की हल्की-सी आवाज आती है, ‘बहुत अच्छा किया’! मां जब बच्चे की पीठ पर हाथ फिराकर कहती है- "अच्छा किया बेटा", तो उसे ऐसा लगता है, मानो दुनिया सारी बख्शिश उसे मिल गयी। उसी तरह हृदयस्थ परमात्मा के ‘शाबाश बेटा’, शब्द हमें प्रोत्साहन और प्रेरणा देते हैं, ऐसे समय जीव भोगमय जीवन छोड़कर नैतिक जीवन की भूमिका में आ खड़ा होता है। 25. इसके बाद की भूमिका है - नैतिक जीवन में कर्तव्य करते हुए अपने मन के सभी मैलों को धोने का यत्न करना! परंतु जब मनुष्य ऐसा प्रयत्न करते-करते थकने लगता है, तब जीव ऐसी प्रार्थना करने लगता है- 'हे भगवन! मेरे प्रयत्नों की, मेरी शक्ति की पराकाष्ठा हो गयी। मुझे अधिक शक्ति दे, अधिक बल दे।' जब तक मनुष्य को यह अनुभव नहीं होता कि अपने सभी प्रयत्नों के बावजूद वह अकेला ही पर्याप्त नहीं है, तब तक प्रार्थना का मर्म उसकी समझ में नहीं आता। अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी, जब वह पर्याप्त नहीं जान पड़ती, तब आर्तभाव से द्रौपदी की तरह परमात्मा को पुकारना चाहिए। परमेश्वर की कृपा और सहायता का स्त्रोत तो सतत बहता ही रहता है। जिस किसी को प्यास लग रही हो, वह अपना हक समझकर उसमें से पानी पी सकता है। जिसे कमी पड़ती हो, वह मांग ले। इस तरह का संबंध इस तीसरी भूमिका में आता है। परमात्मा और अधिक निकट आता है। अब वह केवल शाब्दिक शाबाशी न देते हुए सहायता करने के लिए दौड़ आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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