भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-18
निष्कर्ष 40.न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। न तो इस पृथ्वी पर और न स्वर्ग में देवताओं में ही कोई ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति से उत्पन्न हुए इन तीन गुणों से मुक्त हो। 41.ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। हे शत्रुओं को जीतने वाले (अर्जुन), ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों की गतिविधियां उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की होती हैं।
चार वर्णों वाली यह व्यवस्था हिन्दू समाज की कोई अपनी विलक्षण वस्तु नहीं है। यह सब जगह लागू होती है। यह वर्गीकरण मानव-स्वभाव के प्रकारों पर आधारित है। चारों वर्णों में से प्रत्येक की कुछ सुनिर्दिष्ट विशेषताएं हैं, भलेही उन्हें आत्यन्तिक या अनन्य नहीं समझना चाहिए। ये सदा जन्म (आनुवंशिकता) द्वारा निर्धारित नहीं होतीं।गीता का उपयोग इस समय विद्यमान समाज-व्यवस्था के, जो कि बहुत ही अनम्य (लचकहीन) और गड़बड़झाले की है, समर्थन के लिए नहीं कहा जा सकता। गीता चार वर्णों के सिद्धान्त को अपनाती है और उसके क्षेत्र और अर्थ को विस्त्रृत करती है। मनुष्य का बाह्यय जीवन ऐसा होना चाहिए, जो उसके आन्तरिक अस्तित्व को अभिव्यक्त करता हो; ऊपरी तल आन्तरिक गहराई को प्रतिविम्बित करने वाला होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का एक आना जन्मजात स्वभाव होता है और उसको अपने जीवन में प्रभावी बनाना उसका कर्त्तव्य, स्वधर्म है। प्रत्येक व्यक्ति भगवान् का एक केन्द्र-बिन्दु (फोकस), ब्रह्म का एक अंश है। उसकी भवितव्यता अपने जीवन में इस दिव्य सम्भावना को साकार करना है। विश्व की एक आत्मा ने संसार में आत्माओं की विविधता उत्पन्न की है, परन्तु ब्रह्म का विचार हमारी सारभूत प्रकृति, हमारे अस्तित्व का सत्य, हमारा स्वभाव है; गुणों का उपकरण (यन्त्र) हमारा स्वभाव नहीं है, जो कि अभिव्यक्ति का माध्यम-मात्र है। 42.शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। प्रशान्ता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहनशीलता, ईमानदारी, ज्ञान, विज्ञान और धर्म मंे श्रृद्धा, ये ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं।जो लोग ब्राह्मण-वर्ण के हैं, उनसे आशा की जाती है कि उनमें मानसिक और नैतिक गुण होंगे। तुलना कीजिए, धम्मपद, 393: ’’बडे़-बड़े बालों से या वंश से या उच्च कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता। जिसमें सत्य और धर्म है, वही ब्राह्मण है।’’ सत्ता अन्तर्दृष्टि को दूषित और अन्धा कर देती है। अनियन्त्रित सत्ता मानसिक शान्ति के लिए घातक है। इसलिए ब्राह्मण प्रत्यक्ष सत्ता को त्याग देते हैं और आग्रह तथा प्रेम द्वारा एक सामान्य नियन्त्रण बनाए रखते हैं और सत्ता को धारण करने वाले लोगों को पथभ्रष्ट होने से बचाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18, 56
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