भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 246

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष
संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
43.शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥

वीरता, तेज, धीरता, सूझ-बूझ, युद्ध से मुंह न मोड़ना, दानशीलता और नेतृत्व- ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्तव्य हैं।यद्यपि क्षत्रिय आध्यात्मिक नेता होने का दावा नहीं कर सकते, फिर भी उनमें वे गुण होते हैं, जिनमे द्वारा वे अध्यात्मिक सत्यों को कर्म की आवश्यकताओं के अनुसार ढाल सकते हैं।

44.कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्वकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥

कृषि, पशुपालन और व्यापार, से वैश्य के स्वाभाविक कर्तव्य हैं। शूद्र का स्वाभाविक कर्तव्य सेवा का कार्य करना है।यह सब मनुष्यों को सामाजिक जीवन में उच्चतम स्थिति तक उठने के लिए एक जैसी सुविधाएं देने का प्रश्न नहीं है, क्योंकि मनुष्यों की शक्तियां अलग-अलग प्रकार की होती हैं, अपितु यह सब लोगों को एक समान अवसर देने का प्रश्न है, जिससे कि वे अपनी-अपनी प्रतिभाओं को फलवती बना सकें। हर किसी को अपनी दशाओं और प्रयत्न के अनुसार अपनी मानवीय पूर्णता एक पहुँचने का अवसर मिलना चाहिए, जो कि ज्ञान और सदाचार का फल है। इस बात से बहुत कम अन्तर पड़ता है कि हम मिट्टी खोदते हैं या कोई व्यवसाय चलाते हैं या किसी राज्य का शासन करते हैं या किसी कोठरी में बैठकर ध्यान लगाते हैं या किसी राज्य का शासन करते हैं या किसी कोठरी में बैठकर ध्यान लगाते हैं या किसी राज्य का शासन करते हैं या किसी कोठरी में बैठकर ध्यान लगाते हैं। वर्ण-व्यवस्था इस बात को चलता रहता है, और अपने जीवन और कार्य में सत्य और सौन्दर्य के साक्षी रहने के द्वारा अपना अंशदान करते हैं। समाज एक कृत्यात्मक संगठन है और उन सब कृत्यों को, जो कि समाज के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं, सामाजिक दृष्टि से समान समझा जाना चाहिए। अलग-अलग प्रकार की क्षमताओं वाले व्यक्ति एक सप्राण सुगठित सामाजिक व्यवस्था में बंधे हुए हैं।
प्रजातन्त्र एकरूपता की स्थापना के लिए प्रयत्न नहीं है, क्योंकि वह असम्भव है, अपितु यह संगठित विविधता के लिए प्रयत्न है। मनुष्यों की क्षमताएं समान नहीं होतीं, परन्तु समाज के लिए सब मनुष्य समान रूप से आवश्यक हैं और उनकी विभिन्न स्थितियों से प्राप्त होने वाले उनके अंशदानों का मूल्य समान है।[1]

45.स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥

अपने-अपने काम में लगा हुआ प्रत्येक व्यक्ति सिद्धि (पूर्णता) को प्राप्त कर लेता है। अब तू यह सुन कि किस प्रकार अपना कर्तव्य करते हुए मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है।स्वे स्वे कर्मणि अभिरत:: अपने-अपने काम में निष्ठापूर्वक लगा हुआ। हममें से प्रत्येक को हमारे अपने स्तर पर अपनी अनुभूतियों और मनोवेगों के प्रति निष्ठावान् होना चाहिए; अपने स्वभाव के स्तर से ऊपर का कर्म करने की चेष्टा खतरनाक है। हमें अपने स्वभाव की शक्ति के अन्दर रहते हुए पूर्णतया अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

46.यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

जिससे ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं और जिसने इन सबको व्याप्त किया हुआ है, उस परमात्मा की पूजा अपने कर्तव्य के पालन द्वारा करता हुआ मनुष्य सिद्धि (पूर्णता) को प्राप्त कर लेता है। कार्य भगवान् की पूजा है, परमात्मा के प्रति मनुष्य की श्रंद्धाजलि।गीता का मत है कि गुण और क्षमता कृत्यात्मक विभागों का आधार हैं। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए गीता यह मानती है कि मनुष्य का जन्मजात स्वभाव उसके अपने अतीत-जीवनों द्वारा निर्धारित होता है। पूर्णता के सब रूप एक ही दिशा में नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति अपने से ऊपर किसी वस्तु को, अपने से ऊपर उठने को लक्ष्य मानकर चलता है, चाहे वह व्यक्तिगत पूर्णता के लिए यत्न करता हो, चाहे वह कला के लिए जीता हो या चाहे वह अपने साथियों के हित के हित के लिए कार्य करता हो। साथ ही देखिए 18, 48 और 60।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री गैरल्ड हर्ड ने अपनी पुस्तक ’मैन दी मास्टर’ (1942) में ’समाज के चतुर्विध संगठन’ की आवश्यकता पर जोर दिया है। वह लिखते हैं: ’’ऐसा प्रतीत होता है कि मानव-समाज में सदा से चेतना के चार प्रकार या स्तर रहे हैं। पहले स्तर के विषय में हम पहले ही बता चुका हैं। ये आखें या स्पर्श-सूत्र (ऐटैना) हैं, संकट-काल में देखने वाले और अनुभव करने वाले ’ ’ ’। आंखों के नीचे हाथ हैं; अग्रमस्तिष्क के पीछे चालक केन्द्र है। देखने वालों के नीचे दो मानसिक श्रेणियां हैं; ऊपर और निचली मध्यम श्रेणियां, राजनीतिज्ञ और तकनीक- विशेषज्ञ। हमारी वर्तमान संकट की दशा मुख्य रूप से उनके कारण ही है। इनमें से एक ने प्रशासन के क्षेत्र में, सामाजिक उपकरणों के क्षेत्र में बहुत प्रगति करके दैत्याकार राज्यों का अस्तित्व सम्भव बना दिया है और इस प्रकार अपने उन आन्तरिक दबावों को, जिनका कि समाधान नहीं हुआ है, और अधिक तीव्र बना दिया है। और इस प्रकार अपने उन आन्तरिक दबावों को, जिनका कि समाधान नहीं हुआ है, और अधिक तीव्र बना दिया है। दूसरे ने, अर्थात् तकनीकी प्रगति-विशेषज्ञ ने, संयन्त्रों में, शक्ति के यन्त्रजतात में और भौतिक उपकरणों में और भी अधिक तकनीकी प्रगति करके हमारे समाजों को अधिवृद्धियां (हाइपरट्रौफ्रीज), असन्तुलित आन्तरिक रचना वाले शरीर, बना दिया है और ये एक-दूसरे के लिए घातक हेैं। इन दो मध्यम वर्गों के अलावा, जो कि पहले ही व्यष्टीकृत होने के कारण अस्थिर और विघटनशील बन चुके हैं, एक और आधारभूत, अविशेषज्ञ, ननुनच न करने वाला वर्ग, या जनता, बच जाता है- अर्थात् अनुयायी वर्ग। यह वर्ग न केवल श्रद्धा के बिना यह जी ही नहीं सकता।’’ (पृ. 133-37)। श्री हर्ड ने यह भी स्मरण कराया है। कि ’’समाजविज्ञान की आर्य-संस्कृत विचारधारा, जिसने पहले-पहल समाज के इस चतुर्विध गठन की रूपरेखा बनाई थी, और उसका नामकरण किया था, हमारी भी उतनी ही है, जितनी की भारत की।’’ (पृ. 145)।

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परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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