भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 244

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-18
निष्कर्ष
संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
31.यथा धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि सा पार्थ राजसी॥

जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को, करने योग्य कार्य और न करने योग्य कार्य को गलत ढंग से समझता है, हे पार्थ (अर्जुन), वह बुद्धि राजसिक होती है।

32.अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

जिस बुद्धि के द्वारा अन्धकार में डूबा हुआ मनुष्य अधर्म को धर्म समझता है और सब बातों को एक विकृत रूप में (सत्य के विपरीत) देखता है, हे पार्थ (अर्जुन), वह बुद्धि तामसिक होती है।

तीन प्रकार की धृति

33.धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाब्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

वह अविचल धृति, जिससे एकाग्रता द्वारा मनुष्य मन, प्राण (जीवन देने वाला श्वास) और इन्द्रियों की गतिविधियों को नियन्त्रण में रखता है, हे पार्थ (अर्जुन), वह धृति सात्त्विक प्रकार की होती है। धृति : : ध्यान की स्थिरता, जिसके द्वारा हम उन बहुत-सी बातों को जान पाते हैं, जिन्हें हमारी साधारण दृष्टि देख पाने में समर्थ नहीं है। इसकी शक्ति अतीत के लिए पश्चात्ताप और भविष्य के लिए चिन्ताओं के साथ हमारी अनासक्ति के अनुपात में होती है।

34.यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारतेयअर्जुन।
प्रसगंन फलाकाड्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥

जिस धृति के द्वारा मनुष्य अपने कर्तव्य, आनन्द और सम्पत्ति से परिणामस्वरूप फलों की इच्छा करते हुए दृढ़तापूर्वक चिपका रहता है, हे पार्थ (अर्जुन), वह राजसिक प्रकार की होती है।

35.यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुच्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥

जिस धृति के द्वारा कोई मूर्ख व्यक्ति निद्रा, भय, शोक, विषाद, और अभिमान को नहीं त्यागता, हे पार्थ (अर्जुन), वह तामसिक प्रकार की होती है।

तीन प्रकार का सुख

36.सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥

हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), अब तू तुझसे तीन प्रकार के सुख के विषय में सनु। जिस सुख में मनुष्य दीर्घ अभ्यास के द्वारा आनन्द अनुभव करता है और जिसमें उसके दुःख का अन्त हो जाता है;

37.यत्तदग्रे विषमिव परिणामेअमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥

जो सुख शुरू में तो विष जैसा प्रतीत होता है और जो अन्त में अमृत के समान होता है, जो आत्मा को स्पष्ट रूप में समझ लेने के फलस्वरूप उत्पन्न होता है, वह सात्त्विक प्रकार का सुख होता है।

38.विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेअमृतोपममृ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥

जो सुख इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों के संयोग से उत्पन्न होता है और जो शुरू में अमृत-सा किन्तु अन्त में विष जैसा लगता है, वह सुख राजसिक कहलाता है।

39.यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥

जो सुख आरम्भ और अन्त, दोनों में आत्मा को भ्रम में डाले रखता है, जो निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है, वह तामसिक प्रकार का सुख कहा जाता है। सुख जीवन का सार्वभौम उद्देश्य है। बात केवल इतनी है कि यह उन गुणों के अनुसार, जिनकी कि हमारे स्वभाव में प्रधानता है, विभिन्न प्रकार का होता है। यदि हमारे अन्दर तमस् प्रधान होता है, तो हम हिंसा और जड़ता, अन्धता और त्रुटियों से सन्तुष्ट रहते हैं। यदि हमारे अन्दर रजस् की प्रधानता है, तो हमें सम्मत्ति और सत्ता, अभिमान और यश में सुख मिलता है। मानव-प्राणी का सच्चा सुख बाह्य वस्तुओं पर अधिकार करने में नहीं है, अपितु उच्चतर मन और आत्मा की पूर्णता में, जो वस्तु हमारे अन्दर आन्तरिकतम है, उसके विकास में है। हो सकता है कि इसका अर्थ कष्ट और संयम हो, परन्तु यह हमें आनन्द और मोक्ष तक पहुँचा देगा। जब हम सर्वोच्च आत्मा के साथ और अन्य सब प्राणियों के साथ एक हो जाते हैं, तब हम ज्ञान और सदाचार के आनन्द से ऊपर उठकर शाश्वत शान्ति और उल्लास, आत्मा के आनन्द, तक पहुँच सकते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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