गीता रहस्य -तिलक पृ. 86

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण
सुखदुःखविवेक ।
सुखमात्यंतिकं यत्तत् बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम्। [1]
[2]

हमारे शास्त्रकारों को यह सिद्धांत मान्य है कि प्रत्येक मनुष्य सुख- प्राप्ति के लिये, प्राप्त- सुख की वृद्धि के लिये, दुःख को टालने या कम करने के लिये ही सदैव प्रयत्न किया करता है। भृगुजी भरद्वाज से शान्तिपर्व[3] में कहते हैं कि “इह खलु अमुष्मिश्च लोके वस्तुप्रवृत्तयः सुखार्थमभिधीयन्ते। न हातः परं त्रिवर्गफलं विशिष्टतरमस्ति’’ अर्थात इस लोक तथा परलोक में सारी प्रवृति केवल सुख के लिये है और धर्म, अर्थ एवं काम का इसके अतिरिक्त कोई अन्य फल नहीं है। परन्तु शास्त्रकारों का कथन है कि मनुष्य, यह न समझ कर कि सच्चा सुख किसमें है, मिथ्या सुख ही को सत्य सुख मान बैठता है; और इस आशा से कि आज नही तो कल सुख अवश्य मिलेगा, वह अपनी आयु के दिन व्यतीत किया करता हैंं। इतने में, एक दिन मृत्यु के झपेटे में पड़ कर वह इस संसार को छोड़ कर चल बसता है। परन्तु उसके उदाहरण से अन्य लोग सावधान होने के बदले उसी का अनुकरण करते रहते हैंं। इस प्रकार यह भव-चक्र चल रहा है, और कोई मनुष्य सच्चे और नित्य सुख का विचार नहीं करता।

इस विषय में पूर्वी और पश्चिमी तत्त्वज्ञानियों में बड़ा ही मतभेद है, कि यह संसार केवल दुःखमय है, या सुखप्रधान अथवा दुःखप्रधान है। परन्तु इन पक्षवालों में से सभी को यह बात मान्य है, कि मनुष्य का कल्याण दुःख का अत्यन्त निवारण करके अत्यन्त सुख-प्राप्ति करने ही में है। ‘सुख’ शब्द के बदले प्रायः ‘हित’ ‘श्रेय’‘और’ ‘कल्याण’ शब्दों का अधिक उपयोग हुआ करता है ; इनका भेद आगे बतलाया जायगा। यदि यह मान लिया जाय कि ‘सुख’ शब्द में ही सब प्रकार के सुख और कल्याण का समावेश हो जाता है, तो सामान्यतः कहा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य का प्रयत्न केवल सुख के लिये हुआ भारतान्तर्गत पराषरगीता [4] में दिया गया है, कि “यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेश्य दुःखमिहेष्यते’’- जो कुछ हमें इष्ट है वही सुख है और जिसका हम द्वेष करते हैं अर्थात जो हमें नहीं चाहिये वही दुःख है- उसे शास्त्र की दृष्टि से पूर्ण निर्दोष नहीं कह सकते; क्योंकि इस व्याख्या के अनुसार ‘इष्ट’ शब्द का अर्थ इष्ट वस्तु या पदार्थ भी हो सकता है; और, इस अर्थ को मानने से इष्ट पदार्थ को भी सुख कहना पड़ेगा।

उदाहरणार्थ, प्यास लगने पर पानी इष्ट होता है, परन्तु इस बाह्य पदार्थ ‘पानी’ को ‘सुख’ नहीं कह सकते। यदि ऐसा होगा तो नदी के पानी में डूबने वाले के बारे में कहना पड़ेगा कि वह सुख में डूबा हुआ है। सच बात यह है कि पानी पीने से जो इन्द्रिय की तृप्ति होती है उसे सुख कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य इस इन्द्रिय-तृप्ति या सुख को चाहता है; परन्तु इससे यह व्यापक सिद्धांत नहीं बताया जा सकता, कि जिस जिसकी चाह होती है वह सब सुख ही है। इसीलिये नैय्यायिकों ने सुख-दुःख को वेदना कह कर उनकी व्याख्या इस तरह से की है"अनुकूलवेदनीयं सुखं" जो वेदना हमारे अनुकूल है वह सुख है और “प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं’’ जो वेदना हमारे प्रतिकूल है वह दुःख है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो केवल बुद्धि से ग्राह्य हो और इन्द्रियों से परे हो, उसे आत्यन्तिक सुख कहते है। ’’
  2. गीता 6. 21।
  3. महा. शा. 190.9
  4. म.भा. शा. 295.27

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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