गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
इसी लिये महाभारत में अर्थ काम आदि पुरुषार्थ की सिद्धि कर देने वाले सब व्यावहारिक धर्मो का विवेचन करके, अंत में भारत-सावित्री में (और विदुरनीति में) व्यासजी ने सब लोगों को यही उपदेश किया हैः- न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यः हेतुरस्य त्वनित्यः।। अर्थात "सुख-दुःख अनित्य हैं, परन्तु (नीति) धर्मनित्य है; इसलिये सुख की इच्छा से, भय से, लोभ से अथवा प्राण-संकट आने पर भी धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिये। यह जीव नित्य है, और सुख-दुःख आदि विषयअनित्य हैं।" इसी लिये व्यासजी उपदेश करते हैं कि अनित्य सुख-दुःखों का विचार न करके, नित्य-जीव का संबंध नित्य-धर्म से ही जोड़ देना चाहिये [1]। यह देखने के लिये, कि व्यासजी का उक्त उपदेश उचित है या नहीं, हमें अब इस बात का विचार करना चाहिये कि सुख-दुःख का यथार्थ स्वरूप क्या है और नित्य सुख किसे कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मभा. स्व. 5.90; उ.39.12,13
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