गीता रहस्य -तिलक पृ. 85

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौथा प्रकरण

इसी लिये महाभारत में अर्थ काम आदि पुरुषार्थ की सिद्धि कर देने वाले सब व्यावहारिक धर्मो का विवेचन करके, अंत में भारत-सावित्री में (और विदुरनीति में) व्यासजी ने सब लोगों को यही उपदेश किया हैः-

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः।

धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यः हेतुरस्य त्वनित्यः।।

अर्थात "सुख-दुःख अनित्य हैं, परन्तु (नीति) धर्मनित्य है; इसलिये सुख की इच्छा से, भय से, लोभ से अथवा प्राण-संकट आने पर भी धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिये। यह जीव नित्य है, और सुख-दुःख आदि विषयअनित्य हैं।" इसी लिये व्यासजी उपदेश करते हैं कि अनित्य सुख-दुःखों का विचार न करके, नित्य-जीव का संबंध नित्य-धर्म से ही जोड़ देना चाहिये [1]। यह देखने के लिये, कि व्यासजी का उक्त उपदेश उचित है या नहीं, हमें अब इस बात का विचार करना चाहिये कि सुख-दुःख का यथार्थ स्वरूप क्या है और नित्य सुख किसे कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. स्व. 5.90; उ.39.12,13

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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