गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
ये वेदनाएं जन्मसिद्ध अर्थात मूल ही की और अनुभवगम्य हैं, इसलिये नैय्यायकों की उक्त व्याख्या से बढ़ कर सुख-दुःख का अधिक उत्तम लक्षण बतलाया नहीं जा सकता। कोई यह कहे कि ये वेदनारूप सुख-दुःख केवल मनुष्य के व्यापारों से ही उत्पन्न होते हैं, तो यह बात भी ठीक नहीं है; क्योंकि कभी कभी देवताओं के कोप से भी बड़े बड़े रोग और दुःख उत्पन्न हुआ करते हैं जिन्हें मनुष्य को अवश्य भोगना पड़ता है। इसीलिये वेदान्त-ग्रंथों में सामान्यतः इन सुख-दुःखों के तीन भेद- आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक- किये गये हैे। देवताओं की कृपा या कोप से जो सुख-दुःख मिलते हैं उन्हें ‘आधिदैविक’ कहते हैं। बाह्य सृष्टि के, पृथ्वी आदि पंचमहाभूतात्मक, पदार्थो का मनुष्य की इन्द्रियों से संयोग होने पर, शीतोष्ण आदि के कारण जो सुख-दुःख हुआ करते हैं उन्हें ‘आधिभौतिक’ कहते हैं। और, ऐसे बाह्य संयोग के बिना ही होने वाले अन्य सब सुख-दुःखों को ‘आध्यात्मिक’ कहते हैं। यदि सुख-दुःख का यह वर्गीकरण स्वीकार किया जाय, तो शरीर ही के वात-पित आदि दोषों का परिमाण बिगड़ जाने से उत्पन्न होने वाले ज्वर आदि दुःखों को, तथा उन्हीं दोषों का परिमाण यथोचित रहने से अनुभव में आने वाले शारीकि स्वास्थ्य को, आध्यात्मिक सुख-दुःख कहना पड़ता है। क्योंकि, यद्यपि ये सुख-दुःख पंचभूतात्मक शरीर से सम्बन्ध रखते हैं अर्थात ये शरीरिक हैं तथापि हमेशा यह नहीं कहा जा सकता कि ये शरीर से बाहर रहने वाले पदार्थों के संयोग से पैदा हुए हैऔर, इसलिये आध्यात्मिक सुख-दुःखों के, वेदान्त की दृष्टि से, फिर भी दो भेद- शारीरिक और मानसिक करने पड़ते हैं परन्तु, यदि इस प्रकार सुख-दुःखों को भिन्न मानने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि, यह तो स्पष्ट ही है कि, देवताओं की कृपा अथवा क्रोध से होने वाले सुख-दुःखों को भी आखिर मनुष्य अपने ही शरीर या मन के द्वारा भोगता है। अतएव हमने इस ग्रंथ में वेदान्त-ग्रंथों की परिभाषा के अनुसार सुख-दुःखों का त्रिविध वर्गीकरण नहीं किया है, किन्तु उनके दो ही वर्ग (बाह्य या शारीरिक और आभ्यंतर या मानसिक) किये हैं, और इसी वर्गीकरण के अनुसार, हमने इस ग्रंथ में सब प्रकार के शारीरिक सुख-दुःखों को “आधिभौतिक’’ और सब प्रकार के मानसिक सुख-दुःखों को ‘आध्यात्मिक’ कहा है। वेदान्त ग्रंथों में जैसा तीसरा वर्ग ‘आधिदैविक’ दिया गया है वैसा हमने नहीं किया हैं; क्योंकि हमारे मतानुसार सुख-दुःखों का शास्त्रीय रीति से विवेचन करने के लिये यह द्विविध वर्गीकरण ही अधिक सुभीते का है। सुख-दुःख का जो विवेचन नीचे किया गया है उसे पड़ते समय यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये, कि वेदान्त ग्रंथों के और हमारे वर्गीकरण में भेद है। सुख-दुःखों को चाहे आप द्विविध मानिये अथवा विविध; इसमें सन्देह नहीं कि दुःख की चाह किसी मनुष्य को नहीं होती। इसीलिये वेदान्त और सांख्य शास्त्र [1]में कहा गया है कि, सब प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृति करना और आत्यन्तिक तथा नित्य सुख की प्राप्ति करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। जब यह बात निश्चित हो चुकी, कि मनुष्य का परम साध्य या उद्देश आत्यन्तिक सुख ही है, तब ये प्रश्न मन में सहज ही उत्पन्न होते हैं कि अत्यन्त, सत्य और नित्य सुख किसको कहना चाहिये, उसकी प्राप्ति होना संभव है या नहीं? यदि संभव है तो कब और कैसे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सां.का. 1 ;गी. 6.21,22
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