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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:
अष्टदश: सन्दर्भ:
18. गीतम्
सान्द्रानन्द-पुरन्दरादि- दिविषद्वृन्दैरमन्दादरा- अनुवाद- बलि राजा का गर्व खर्व होने से महान आनन्द में निमग्न देवतागण बड़े आदर के साथ जिन चरणों में प्रणत हुए, इन्द्रनीलमणिमय मुकुट की शोभा निज चरणों में प्रतिबिम्बित होने से जो चरण नीलकुवलय सदृश प्रतीत हुए, मकरन्द के समान मनोहारिणी मन्दाकिनी जिन चरणों से अनायास ही स्वच्छन्दतापूर्वक नि:सृत हुई है, समस्त अशुभों का निराकरण करने वाले श्रीकृष्ण के उन श्रीचरणकमलों की हम वन्दना करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [सम्प्रति श्रीकृष्णस्य ऐश्वर्यं वर्णायन्नाशिषा सर्गं समापयति]- सान्द्रानन्द-पुरन्दरादि-दिविषद्रवृन्दै: (वलेर्नियमानात् सान्द्र: निविड़: आनन्दो येषां तेषां पुरन्दरादीनां दिविषदां देवानां वृन्दै:) अमन्दादरात् (अधिकादरात्र) आनम्रै: (सम्यक् प्रणतै:) [सद्भि]: मुकुटैन्द्रनीलमणिभि: (मुकुटस्थै: इन्द्रनीलमणिभि:) सन्दशितेन्दिन्दिरं (सन्दर्शित: इन्दिन्दिर: भ्रमरो यत्र तादृशं) [तथा] स्वच्छन्दं [यथा तथा] मकरन्द-सुन्दर-गलन्मन्दाकिनीमेदुरं (मकरन्दवत् सुन्दरं यथा तथा गलन्त्या क्षरन्त्या मन्दाकिन्या आकाशगंगया मेदुरं स्निग्धं) श्रीगोविन्दपदारविन्दम् अशुभस्कन्दाय (अशुभानां भक्तिप्रतिबन्धकानां विनाशाय) वन्दामहे (प्रणमाम:) [अतएव श्रीराधिकामानोपशमनचिन्तया मुग्धो मुकुन्दो यत्र सोऽयं सर्गो नवम:] ॥2॥
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सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |