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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभूव: श्यामास्तमालद्रुमै- अनुवाद - हे राधे! समस्त दिशाएँ घनघोर घटाओं से आच्छादित हो गई हैं। वन वसुन्धरा श्यामल तमाल विटपावलीकी प्रतिच्छाया से तिमिरयुक्ता हो गई है। भीरु स्वभा ववाले कृष्ण इस निशीथ में एकाकी नहीं जा सकेंगे-अत: तुम इन्हें अपने साथ ही लेकर सदन में पहुँचो। श्रीराधा जी, सखी द्वारा उच्चरित इस वचन का समादर करती हुई आनन्दातिशयता से विमुग्ध हो, पथ के पार्श्व में स्थित कुञ्ज- तरुवरों की ओर अभिमुख हुई और कालिन्दी के किनारे उपस्थित होकर एकान्त में केलि करने लगीं। श्रीयुगल माधुरी की यह रहस्यमयी लीला भक्तों के हृदय में स्फुरित होकर विजयी हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [कदाचित् बालगोपालेन सह गोष्ठस्थितो नन्द: सायं समये मेघाडम्बरमालोक्य स्वयं कार्यान्तरव्यासक्ततया नन्दनं गृहं नेतुमशक्त: किमपि कार्यमुद्दिश्य तत्रेपस्थितां राधां प्रति आह]; -अम्बरं; आकाशतलं मेघै: मेदुरं (निविड़- तमसाच्छन्नातया सान्द्र-स्निग्धं) वनभुव: (आरण्य-प्रदेशा:) तमालद्रुमै: (घनसन्निाविष्टै: तमालवृक्षै:) श्यामा: (गाढ़नीलवर्णा:) तथा च अयं [मम शिशु:] नक्तं (सप्तम्यन्तमव्ययम्, रात्रौ इत्यर्थ:) भीरु: (नितरां भयशील:) ;पूर्वरात्रे) त्वां विहाय अन्याभि: कृतरमणापराधतया त्वत्कृत-बहु-नायिकावल्लभा- रोपणाशंकी अतएव भीरु:] तत् (तस्मात्) हे राधे, त्वमेव इमं (बालगोपालं) गृहं (आलयं) प्रापय (नय); इत्थं (एवं) नन्दनिदेशत: (नन्दस्य आज्ञया); अथवा नन्दयतीति नन्द:, नन्दश्चासौ निदेशश्चेति नन्दनिदेश: श्रीराधासखावचनं तस्मात्] प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं (कुञ्जेनोपलक्षितो द्रुम: कुञ्जद्रुम:, अध्वन: कुञ्जद्रुमोऽध्वकुञ्ज-द्रुम:, तं लक्ष्यीकृत्य तत्रेत्यर्थ: चलितयो: (प्रस्थितयो:) राधामाधवयो: यमुनाकूले रह:केलय: (विजनविहारा:) जयन्ति (सर्वोत्कर्षेण वर्त्तन्ते)। श्रीकृष्णस्य स्वयं भगवत्त्वेन सर्वावतारेभ्य:, श्रीराधायाश्च सर्वलक्ष्मीमयत्वेनास्य सर्वप्रेयसीभ्य: श्रैष्ठ्यात् इतिभाव:; तथाचोक्तं सूतेन "एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान स्वयम्" इति।] वृहद्-गोतमीये च-"देवी कृष्णामयी प्रोक्ता राधिका परदेवता सर्वलक्ष्मीमयी सर्वस्यान्त:- संमोहिनी परा" इति॥1॥
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