गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 361

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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बालबोधिनी- श्रीराधा के द्वारा जब कोई उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं दिया गया, तब सखी उसे सम्बोधित करती हुई बोली- राधे! इस समय तुम्हें क्या हो गया है? विपरीत आचरण कर रही हो। कैसा उल्टा-पुल्टा व्यवहार कर रही हो, जिस प्रेम के लिए इतनी विकल विदग्ध हो रही थीं, जब वे मिलन हेतु आये तो विचित्र हो गयी हो, इस सुखद अवसर को अपने हाथों से खो रही हो, श्रीकृष्ण तुमसे कितना कोमल स्नेह कर रहे हैं, पर तुमने इतना मान कर लिया है कि उनके प्रति इतनी निठुर, रुक्ष, कठोर होकर उनसे पौरुष वाक्य कह रही हो। वे तुम्हारे पैरों में विनत हो रहे हैं और तुम स्तब्ध खड़ी हो।

वे सर्वगुणसम्पन्न होकर भी तुम्हारे प्रति कितना अनुराग प्रकाश कर रहे हैं और तुम उनसे द्वेष कर रही हो। तुम्हारे श्रीमुख का दर्शन कर कितने उन्मुख-अभिमुख उल्लसित-उत्सुक हो रहे हैं, और तुम उदासीन होकर विमुखता प्रदर्शित कर रही हो। शायद तुम्हारी मति पलट गयी है, विपरीत आचरण करने वाली तुम्हारे लिए यह समुचित है कि ऐसे सुखदायी अवसर पर चन्दन का लेपन तुम्हें गरल सरिस सन्तप्त कर रहा है, चन्द्रमा की शीतल किरणें सन्तप्तकारी सूर्य की दाहक लपटें प्रतीत हो रही हैं, हिम कृशानु सरीखा दग्ध कर रहा है, रतिजनित आनन्द तुम्हारे लिए कष्टप्रद अनुभूत हो रही है, यह कैसी प्रतिकूलता तुम्हारे अन्तर्मन में समा गयी है- इस विपरीत व्यवहार का शीघ्र परित्याग करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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