गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 184

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ अष्टम: सन्दर्भ

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यमुना-तीर-वानीर-निकुञ्जे मन्दमास्थितम्।
प्राह-प्रेम-भरोद्रभ्रान्तं माधवं राधिका-सखी ॥1॥[1]

अनुवाद- यमुना के तट पर स्थित वेतसी के निकुञ्ज में श्रीराधाप्रेम में विमुग्ध होकर विषण्ण (विषाद) चित्त से बैठे हुए श्रीकृष्ण से श्रीराधा की प्रिय सखी कहने लगी।

पद्यानुवाद
यमुनातीरे वेतसकुञ्जे, बैठे हैं यदुवंशी
राधाके चिन्तनमें अपनी भूले लकुटी-वंशी।
इसी समय सम्मुख हो कोई छाया-सी आ डोली
और सखीकी व्यथा-कथा सब धीरे-धीरे बोली॥

बालबोधिनी- अब दोनों की पृथक् कामावस्था का निरूपण करके उन दोनों का संयोजन कराने की इच्छा से दूतीयोग का निरूपण करते हैं। श्रीराधिका की सखी ने माधव से कहा। पूर्वराग में श्रीराधा ने अपनी सखी से श्रीकृष्ण-मिलन की वासना अभिव्यक्त की थी। तब वह सखी श्रीराधा को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण के पास गयी तो देखा, उनका चित्त श्रीराधा-विषयक प्रेमाधिक्य के कारण उद्रभ्रान्त अर्थात उन्मत्त-उद्विग्न हो रहा था। अन्वेषण करने पर भी जब उनकी श्रीराधा नहीं मिलीं तो वे यमुना पुलिन पर विद्यमान वेतसी निकुञ्ज में निरुत्साहित और उदास होकर बैठ गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथ राधिकाविरहोत्कण्ठं श्रीकृष्णं] राधिकासखी (राधिकाया: काचित्र सहचरी) प्रेमभरोद्भरान्तं (प्रेम्णां भरेण उद्रभ्रान्तम् उन्मत्तं) [अतएव तदन्वेषणं विहाय] यमुनातीर-वानीर-निकुञ्जे (यमुनातीरे यत्र वानीरनिकुञ्जं वेतसलता-कुञ्जं तस्मिन्) मन्दं (विषण्णं निरुद्यमं वा यथास्यात्र तथा) आस्थितम् (उपविष्टं) माधवं प्राह (उवाच) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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