गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 348

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

Prev.png

तामथ मन्मथ-खिन्नां रति-रस-भिन्नां विषाद-सम्पन्नाम्।
अनुचिन्तित-हरि-चरितां कलहान्तरितामुवाच रहसि सखी ॥1॥[1]

अनुवाद- मदनबाण से प्रपीड़िता, रतिवञ्चिता, विषादयुक्ता, कलहान्तरिता, श्रृंगार रस से युक्त श्रीहरि के चरित्र के विषय में सतत चिन्तन करने वाली श्रीराधा से सखी ने एकान्त में कहा-

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अथ अनन्तरम्; (प्रणत्यापि मानानपगमात् श्रीकृष्णे अन्तर्हिते सति) सखी रह: (एकान्ते) कलहान्तरितां (कलहान्तरितावस्थां प्राप्तां) [अतएव] मन्मथखिन्नां (मन्मथेन मदनेन खिन्ना सन्तप्ता तां) रतिरसभिन्नां (रतिरसेन सुरतानन्देन भिन्ना खण्डिता ताम्) विषादसम्पन्नां (विषादेन चित्तक्लेशेन सम्पन्ना युक्ता ताम्) अनुचिन्तित-हरि-चरिताम् (अनुचिन्तितं पुन:पुनश्चिन्तितं हरे: चरितं चाटूक्ति-पाद-पतनादि यया तादृशीं) [अन्तरुत्सुकामपि बहिर्मानावगुण्ठितां] तां [श्रीराधाम्] उवाच॥ [कलहान्तरितालक्षणम्-चाटुकारमपि प्राणनाथं रोषादपास्य या। पश्चात्तापमवाप्नोति कलहान्तरिता तु सा॥ इति साहित्यदर्पणे ॥1॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः