"भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 24" के अवतरणों में अंतर

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(अध्याय 2-श्लोक 47, 48। अध्याय 3-श्लोक 3-9, 20,21,25-29,33। अध्याय 4-श्लोक 16,18,19,22,31-33,37,38,41,42। अध्याय 5-श्लोक 4,7,11। अध्याय 6- श्लोक 1,2। अध्याय 18-श्लोक 2,7,9,11,56,57)।
 
(अध्याय 2-श्लोक 47, 48। अध्याय 3-श्लोक 3-9, 20,21,25-29,33। अध्याय 4-श्लोक 16,18,19,22,31-33,37,38,41,42। अध्याय 5-श्लोक 4,7,11। अध्याय 6- श्लोक 1,2। अध्याय 18-श्लोक 2,7,9,11,56,57)।
  
अब हम फिर से भगवद्गीता की नैतिक शिक्षा के अध्ययन पर आयेंगे। भूतकाल के प्रति आदर और पुराणप्रेम हिन्दू विचार-धारा की विशेषता है। इसे अप्रगतिशील कट्टरता समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। हिन्दू-धर्म में पुराण-पे्रम के होते हुए भी, उससे अधिक सहनशीलता, विचार-स्वातंत्रय या सत्य के प्रति वैज्ञानिक आदर किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म अन्य धर्मों के समान ही बढ़ा और विकसित हुआ है। उनमें सदैव विविध प्रकार की अत्यन्त साहसपूर्ण कल्पनाएँ प्रकट की गई हैं। हिन्दुओं के विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में हिन्दू धर्माचार्यों के दर्शन के अनुसार सत्य के विविध पहलुओं पर जोर दिया गया है। गीता में न केवल हिन्दू धर्म के अधिक प्राचीन पहलू कर्मकाण्ड पर विश्वास के, वरन् आत्म-संयम-मात्र पर आधारित समस्त जीवन के भी नीतिशास्त्र का विकास पहले से ही दिखलाई पड़ता है।
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अब हम फिर से भगवद्गीता की नैतिक शिक्षा के अध्ययन पर आयेंगे। भूतकाल के प्रति आदर और पुराण प्रेम हिन्दू विचार-धारा की विशेषता है। इसे अप्रगतिशील कट्टरता समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। हिन्दू-धर्म में पुराण-प्रेम के होते हुए भी, उससे अधिक सहनशीलता, विचार-स्वातंत्र्य या सत्य के प्रति वैज्ञानिक आदर किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म अन्य धर्मों के समान ही बढ़ा और विकसित हुआ है। उनमें सदैव विविध प्रकार की अत्यन्त साहसपूर्ण कल्पनाएँ प्रकट की गई हैं। हिन्दुओं के विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में हिन्दू धर्माचार्यों के दर्शन के अनुसार सत्य के विविध पहलुओं पर जोर दिया गया है। गीता में न केवल हिन्दू धर्म के अधिक प्राचीन पहलू कर्मकाण्ड पर विश्वास के, वरन् आत्म-संयम-मात्र पर आधारित समस्त जीवन के भी नीतिशास्त्र का विकास पहले से ही दिखलाई पड़ता है।
  
[[गीता]] में जोर दिया गया है कि जगत् का व्यापार चलता ही रहना चाहिए। साधु पुरुष अपने ऊपर आये हुए और अपनी सामाजिक स्थिति से सम्बन्ध रखने वाले सब काम बराबर करता है। बाहरी रूप में वह दूसरों के समान ही काम करता है, परन्तु अन्दर अलिप्त रहता है। वह प्रत्येक कार्य निःस्वार्थभाव से करता है और सफलता तथा असफलता, सुख तथा दुःख, आनन्द तथा अनुताप में अपने मन की समता कायम रखता है। इसप्रकार शुद्ध होकर वह निरन्तर ध्यान, प्रार्थना और भक्ति के द्वारा अधिक प्रगति करने का पात्र होता है और अन्ततः ‘‘अपने आपको सब वस्तुओं में और सब वस्तुओं का ईश्वर में ’’ देखता है। सांसारिक कामों के बीच यही समर्पित जीवन योग कहलाता है।
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[[गीता]] में जोर दिया गया है कि जगत् का व्यापार चलता ही रहना चाहिए। साधु पुरुष अपने ऊपर आये हुए और अपनी सामाजिक स्थिति से सम्बन्ध रखने वाले सब काम बराबर करता है। बाहरी रूप में वह दूसरों के समान ही काम करता है, परन्तु अन्दर अलिप्त रहता है। वह प्रत्येक कार्य निःस्वार्थभाव से करता है और सफलता तथा असफलता, सुख तथा दुःख, आनन्द तथा अनुताप में अपने मन की समता कायम रखता है। इस प्रकार शुद्ध होकर वह निरन्तर ध्यान, प्रार्थना और भक्ति के द्वारा अधिक प्रगति करने का पात्र होता है और अन्ततः ‘‘अपने आपको सब वस्तुओं में और सब वस्तुओं का ईश्वर में ’’ देखता है। सांसारिक कामों के बीच यही समर्पित जीवन योग कहलाता है।
  
 
विहित [[कर्म]] में ही सच्चा त्याग है। त्याग कर्म का नहीं, वरन् स्वार्थपरता का होना चाहिए। हमें अपने प्रवृत्तियों को स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के बंधन से मुक्त होना चाहिए। कर्म कर्तव्य की भावना से करना चाहिए और उसके परिणाम से मन को विचलित नहीं होने देना चाहिए। इस निःस्वार्थ और अलिप्त भाव का विकास अपने जीवन के कार्यों में लगे रहते हुए भी हो सकता है, और होना चाहिये। इसके सतत अभ्यास से, प्रगति की उच्चतर सीढ़ियों पर पहुँचने के बाद, योग और संन्यास के मार्ग का अन्तर मिट जाएगा।
 
विहित [[कर्म]] में ही सच्चा त्याग है। त्याग कर्म का नहीं, वरन् स्वार्थपरता का होना चाहिए। हमें अपने प्रवृत्तियों को स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के बंधन से मुक्त होना चाहिए। कर्म कर्तव्य की भावना से करना चाहिए और उसके परिणाम से मन को विचलित नहीं होने देना चाहिए। इस निःस्वार्थ और अलिप्त भाव का विकास अपने जीवन के कार्यों में लगे रहते हुए भी हो सकता है, और होना चाहिये। इसके सतत अभ्यास से, प्रगति की उच्चतर सीढ़ियों पर पहुँचने के बाद, योग और संन्यास के मार्ग का अन्तर मिट जाएगा।
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15:07, 26 मार्च 2018 के समय का अवतरण

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

(अध्याय 2-श्लोक 47, 48। अध्याय 3-श्लोक 3-9, 20,21,25-29,33। अध्याय 4-श्लोक 16,18,19,22,31-33,37,38,41,42। अध्याय 5-श्लोक 4,7,11। अध्याय 6- श्लोक 1,2। अध्याय 18-श्लोक 2,7,9,11,56,57)।

अब हम फिर से भगवद्गीता की नैतिक शिक्षा के अध्ययन पर आयेंगे। भूतकाल के प्रति आदर और पुराण प्रेम हिन्दू विचार-धारा की विशेषता है। इसे अप्रगतिशील कट्टरता समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। हिन्दू-धर्म में पुराण-प्रेम के होते हुए भी, उससे अधिक सहनशीलता, विचार-स्वातंत्र्य या सत्य के प्रति वैज्ञानिक आदर किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म अन्य धर्मों के समान ही बढ़ा और विकसित हुआ है। उनमें सदैव विविध प्रकार की अत्यन्त साहसपूर्ण कल्पनाएँ प्रकट की गई हैं। हिन्दुओं के विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में हिन्दू धर्माचार्यों के दर्शन के अनुसार सत्य के विविध पहलुओं पर जोर दिया गया है। गीता में न केवल हिन्दू धर्म के अधिक प्राचीन पहलू कर्मकाण्ड पर विश्वास के, वरन् आत्म-संयम-मात्र पर आधारित समस्त जीवन के भी नीतिशास्त्र का विकास पहले से ही दिखलाई पड़ता है।

गीता में जोर दिया गया है कि जगत् का व्यापार चलता ही रहना चाहिए। साधु पुरुष अपने ऊपर आये हुए और अपनी सामाजिक स्थिति से सम्बन्ध रखने वाले सब काम बराबर करता है। बाहरी रूप में वह दूसरों के समान ही काम करता है, परन्तु अन्दर अलिप्त रहता है। वह प्रत्येक कार्य निःस्वार्थभाव से करता है और सफलता तथा असफलता, सुख तथा दुःख, आनन्द तथा अनुताप में अपने मन की समता कायम रखता है। इस प्रकार शुद्ध होकर वह निरन्तर ध्यान, प्रार्थना और भक्ति के द्वारा अधिक प्रगति करने का पात्र होता है और अन्ततः ‘‘अपने आपको सब वस्तुओं में और सब वस्तुओं का ईश्वर में ’’ देखता है। सांसारिक कामों के बीच यही समर्पित जीवन योग कहलाता है।

विहित कर्म में ही सच्चा त्याग है। त्याग कर्म का नहीं, वरन् स्वार्थपरता का होना चाहिए। हमें अपने प्रवृत्तियों को स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के बंधन से मुक्त होना चाहिए। कर्म कर्तव्य की भावना से करना चाहिए और उसके परिणाम से मन को विचलित नहीं होने देना चाहिए। इस निःस्वार्थ और अलिप्त भाव का विकास अपने जीवन के कार्यों में लगे रहते हुए भी हो सकता है, और होना चाहिये। इसके सतत अभ्यास से, प्रगति की उच्चतर सीढ़ियों पर पहुँचने के बाद, योग और संन्यास के मार्ग का अन्तर मिट जाएगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
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