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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विहित कर्मकिं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: । कर्म क्या है, अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमानों को भी भ्रम होता है। इसलिए मैं तुझे बताऊंगा कि कर्म कैसे करना चाहिए। इसे जानकर तू अशुभ से बचेगा। कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: । जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह मनुष्यों में सच्चा ज्ञानी है। वह सब कर्मों को करता हुआ भी योगी है। कर्म में अकर्म को देखना नियत या स्वयं स्वीकार किये हुए कर्मों को करते-करते ही स्वार्थ-कामना के त्याग के सिद्धान्त को समझना और पूर्ण करना है। अकर्म और कर्म को देखना यह समझना कि बाह्य संयम ही मानसिक शुद्धि नहीं है; उसका अर्थ अभ्यास द्वारा आन्तरिक कामना का नियंत्रण करना भी है। दोनों पहलुओं को चैथे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में-जो पृष्ठ 32 पर उद्धृत है-फिर से दुहराया गया है। जो कर्म स्वार्थ-कामना से रहित होकर किये जाते हैं, वे बन्धन उत्पन्न नहीं करते। यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता: । जिसके समारम्भ कामनाओं से संयोजित नहीं होते और जिसके कर्म ज्ञानाग्नि में तप कर शुद्ध हो गये हैं, उसे ही सत्य का साक्षात्कार हुआ है, ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं। यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर: । जो यथालाभ से सन्तुष्ट रहता है, जो सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से मुक्त हो गया है, जो द्वेषरहित हो गया है, जो सफलता-असफलता में तटस्थ है, वह कर्म करता हुआ भी बन्धन में नहीं पड़ता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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