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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
अति दुसह दुख समूह को सहन करके भी, जाति कुलादि को त्याग कर भी, एवं चाण्डाल का थूका हुआ (झूंठा) आहार खाकर भी मैं श्रीवृन्दावन वास करूंगा।।17।।
सज्जनों के समीप भी नहीं जाऊंगा (अथवा सत्पुरुषों से दूर नहीं जाऊंगा) मैं अपने कुलादि का परिचय नहीं दूंगा। श्रीवृन्दावन के वास करने में अति साहसी होकर अन्य किसी को मुख नहीं दिखलाऊंगा।।18।।
अनन्त पार सर्व उद्भासी ब्रह्मज्योति की अन्तरतर-ज्योति (सार) आनन्द सान्द्र विष्णुधाम (परव्योम) है, उसका भी अन्तरतर ज्योति है- अपरिमित आनन्द का आस्वादनमय ब्रज मण्डल, उसका भी अन्तरतम (सारात्सार) यह श्री वृन्दाटवी है।।19।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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